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सरकारी सेवाओं से मातृभाषाओं की विदाई
डॉ. अमरनाथ
यूपी बोर्ड की परीक्षा में आठ लाख विद्यार्थियों का हिन्दी में फेल होने का समाचार 2020 में सुर्खियों में था. कुछ दिन बाद जब यूपीपीएससी का रेजल्ट आया तो उसमें भी दो तिहाई से अधिक अंग्रेजी माध्यम के अभ्यर्थी सफल हुए. यह संख्या पहले 20-25 प्रतिशत के आस-पास रहती थी. सितंबर 2020 में जब यूपीपीएससी का परिणाम आया तो उसके दूसरे दिन प्रयागराज के एक प्रतिभाशाली छात्र राजीव पटेल ने निराशा और दबाव में आकर आत्महत्या कर ली. उसके बाद से हिन्दी माध्यम के परीक्षार्थी अपनी माँगों को लेकर प्रयागराज की सड़कों पर महीनों आन्दोलन करते रहे. 2020 का यूपीएससी का रेजल्ट भी ऐतिहासिक और अभूतपूर्व था. हिन्दी माध्यम वाले सफल अभ्यर्थियों की संख्या सिर्फ तीन प्रतिशत रह गई. 97% अभ्यर्थी अंग्रेजी माध्यम वाले सफल हुए. मैने समस्या की तह में जाने की कोशिश की तो सिर घूम गया.
देश में अराजपत्रित कर्मचारियों के चयन के लिए कर्मचारी चयन आयोग (स्टाफ सलेक्शन कमीशन) सबसे बड़ा संगठन है. इस संगठन की परीक्षाओं से हिन्दी को पूरी तरह बाहर का रास्ता दिखाया जा चुका है. मैंने उसकी वेबसाइट पर जाकर देखा, अध्ययन किया तो सकते में आ गया. कंबाइंड ग्रेजुएट लेबल की परीक्षा जो तीन सोपानों में आयोजित होती है, उसके प्रत्येक सोपान में क्रमश: इंग्लिश कंप्रीहेंशन, इंग्लिश लैंग्वेज एण्ड कंप्रीहेंशन तथा डेस्क्रिप्टिव पेपर इन इंग्लिश ऑर हिन्दी है. प्रश्न यह है कि जब आरंभिक दो सोपानों में इंग्लिश लैंग्वेज एण्ड कंप्रीहेंशन अनिवार्य है तो तीसरे सोपान में भला हिन्दी का विकल्प कोई क्यों और कैसे चुन सकता है? जाहिर है यहाँ हिन्दी का उल्लेख केवल नाम के लिए है.
कंबाइंड हायर सेकेंडरी लेबल की परीक्षा में इंग्लिश लैंग्वेज का प्रश्नपत्र है किन्तु हिन्दी का कुछ भी नहीं है. स्टेनोग्राफर्स ( ग्रेड ‘सी’ एण्ड ‘डी’ ) के लिए 200 अंकों की परीक्षा में इंग्लिश लैंग्वेज एण्ड कंप्रीहेंशन 100 अंकों का है किन्तु हिन्दी को पूरी तरह हटा लिया गया है. जूनियर इंजीनियर्स की परीक्षा में हिन्दी का नामोनिशान नहीं है. सब इंस्पेक्टर्स ( दिल्ली पुलिस, सीएपीएफ तथा सीआईएसएफ) की परीक्षा दो भाग में होती है. इसके पहले भाग में 50 अंकों का इंग्लिश कंप्रीहेंशन तो है ही, दूसरे भाग में भी 200 अंकों का सिर्फ इंग्लिश लैंग्वेज एण्ड कंप्रीहेंशन है. विभिन्न राज्यों और केन्द्र शासित प्रदेशों में मल्टी टास्किंग (नान टेक्निकल) स्टाफ के लिए भी दो भागों में बँटी परीक्षा के पहले भाग में जनरल इंग्लिश है और दूसरे भाग में शार्ट एस्से एण्ड इंग्लिश लेटर राइटिंग है. आयोग ने मान लिया है कि हिन्दी में कुछ भी लिखने की कभी जरूरत नहीं पड़ेगी. इसीलिए हिन्दी के किसी स्तर के ज्ञान की परीक्षा का कोई प्रावधान नहीं है. यह सब देखने के बाद कहा जा सकता हैं कि देश की अराजपत्रित सरकारी नौकरियों के लिए अब हर स्तर पर सिर्फ अंग्रेजी को स्थापित कर दिया गया है और हिन्दी को पूरी तरह बाहर का रास्ता दिखा दिया गया है.
राजपत्रित अधिकारियों के चयन के लिए संघ लोक सेवा आयोग तथा विभिन्न राज्यों के लोक सेवा आयोग हैं. संघ लोक सेवा आयोग का गठन अंग्रेजों ने 1926 में किया था. अंग्रेजों के जमाने में यहाँ परीक्षाओं का माध्यम सिर्फ अंग्रेजी थीं. आजादी के बाद 1950 में इस परीक्षा के लिए सिर्फ तीन हजार प्रतिभागियों ने हिस्सा लिया था और 1970 में यह संख्या बढ़कर ग्यारह हजार हुई थी. 1979 में कोठारी समिति के सुझाव लागू हुए जिसने संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल सभी भाषाओं में परीक्षा देने की संस्तुति की थी. इससे देश के दूर दराज के गाँवों में दबी प्रतिभाओं को भी अपनी भाषा में परीक्षा देने के अवसर उपलब्ध हए. परिणाम यह हुआ कि 1979 में परीक्षा देने वालों की संख्या एकाएक बढ़कर एक लाख दस हजार हो गई. अब हर साल गाँवों के गरीबों के बच्चों की भी एकाध तस्वीरें अखबारों में अवश्य देखने को मिल जाती थीं जिनका चयन इस प्रतिष्ठित सेवा में हो जाता था. शीर्ष पर बैठे हमारे नीति नियामकों को यह बर्दाश्त नहीं हुआ. उन्होंने 2011 में वैकल्पिक विषय को हटाकर उसकी जगह 200 अंकों का सीसैट ( सिविल सर्विस एप्टीट्यूट टेस्ट) लागू किया जिसमें मुख्य जोर अंग्रेजी पर था. इससे हिन्दी माध्यम वाले परीक्षार्थियों की संख्या तेजी से घटी. इसका राष्ट्र व्यापी विरोध हुआ. दिल्ली हाईकोर्ट ने भी आन्दोलनकारियों के पक्ष में अपेक्षित निर्देश दिए, तब जाकर 2014 में आयोग ने कुछ बदलाव किए. किन्तु इसके बाद धीरे- धीरे आयोग ने सीसैट सहित यूपीएससी परीक्षा के नियमों में दूसरे अनेक ऐसे परिवर्तन किए जिससे हिन्दी माध्यम के अभ्यर्थियों के लिए प्रारंभिक परीक्षा पास करना भी कठिन होता गया. 2009 में हिन्दी माध्यम से जहाँ 25.4 प्रतिशत परीक्षार्थी सफल हुए थे वहाँ 2019 में यह संख्या घटकर मात्र 3 प्रतिशत रह गई. पहले जहाँ टॉप टेन सफल अभ्यर्थियों में तीन-चार हिन्दी माध्यम वाले अवश्य रहते थे वहाँ 2019 में चयनित कुल 829 अभ्यर्थियों में हिन्दी माध्यम वाले चयनित अभ्यर्थियों में पहले अभ्यर्थी का स्थान 317वाँ है.
तीन स्तरों पर होने वाली संघ लोक सेवा आयोग की इस सर्वाधिक प्रतिष्ठित परीक्षा में हिन्दी माध्यम वालों को अमूमन प्रारंभिक परीक्षा में ही छाँट दिया जाता है. मुख्य परीक्षा की तैयारी के लिए भी न तो उन्हें स्तरीय पाठ्य-सामग्री सुलभ है और न बेहतर कोचिंग की सुविधा क्योंकि आर्थिक दृष्टि से भी वे कमजोर होते हैं. ग्रामीण पृष्ठभूमि के ऐसे अभ्यर्थी ज्यादातर मानविकी के विषय चुनते हैं. तकनीकी विषय चुनने वाले अभ्यर्थियों की तुलना में स्वाभाविक रूप से उन्हें कम अंक मिलते हैं. साक्षात्कार में भी हिन्दी माध्यम वालों के साथ भेदभाव किया जाता है. साक्षात्कार के समय अमूमन उनसे पूछा जाता है कि वे हिन्दी में साक्षात्कार देंगे या अंग्रेजी में, जबकि वे अपने आवेदन पत्र में पहले ही हिन्दी माध्यम का विकल्प चुनकर उन्हें अवगत करा चुके होते हैं. हिन्दी माध्यम वाले अभ्यर्थियों को मिलने वाले प्रश्नों के हिन्दी अनुवाद देखकर तो कोई भी समझदार व्यक्ति सिर पीट लेगा. कुछ बानगी आप भी देखिए,
“भारत में संविधान के संदर्भ में, सामान्य विधियों में अंतर्विस्ट प्रतिषेध अथवा निर्बंधन अथवा उपबंध अनुच्छेद-142 के अधीन सांविधानिक शक्तियों पर प्रतिरोध अथवा निर्बंधन की तरह कार्य नहीं कर सकते.”
एक दूसरा वाक्य है, “वार्महोल से होते हुए अंतरा-मंदाकिनीय अंतरिक्ष यात्रा की संभावना की पुष्टि हुई.” ( डॉ. विजय अग्रवाल द्वारा उद्धृत)
प्रश्न निर्माताओं ने सर्जिकल स्ट्राइक के लिए ‘शल्यक प्रहार’, डिजिटलीकरण के लिए ‘अंकीयकृत’, साइंटिस्ट आब्जर्ब्ड के लिए ‘वैज्ञानिकों ने प्रेक्षण किया’, स्टील प्लांट के लिए ‘इस्पात का पौधा’, डेलिवरी के लिए ‘परिदान’, सिविल डिसओबिडिएंस मूवमेंट के लिए ‘असहयोग आन्दोलन’ आदि किया है. इनमें डेलिवरी के लिए ‘वितरण’ तथा डिसओबिडिएँस मूवमेंट के लिए ‘सविनय अवज्ञा आन्दोलन’ तो बेहद प्रचलित शब्द हैं. इन्हें भी गलत लिखना प्रमाणित करता है कि हिन्दी अनुवाद को गंभीरता से नहीं लिया जाता.
अमूमन सहज ही कह दिया जाता है कि जिन्हें हिन्दी अनुवाद समझ में नहीं आता है उनके लिए मूल अंग्रेजी तो रहता ही है. किन्तु यहाँ समझने की बात यह है कि यूपीएससी की प्रारंभिक परीक्षा में छ: से सात लाख परीक्षार्थी शामिल होते हैं और उनमें से लगभग तेरह प्रतिशत परीक्षार्थी ही मुख्य परीक्षा के लिए अपनी अर्हता प्रमाणित कर पाते हैं. ऐसी दशा में 0.01 प्रतिशत अंक का भी महत्व होता है. परीक्षार्थियों को निर्धारित समय सीमा के भीतर ही लिखना होता है. ऐसी दशा में हिन्दी माध्यम का परीक्षार्थी यदि प्रश्न को समझने के लिए अंग्रेजी मूल भी देखने लगा और ऐसे पाँच प्रश्न भी पढ़ने पड़े तो उसका पिछड़ना तय है. किन्तु प्रतिवर्ष औसतन ऐसे दस प्रश्न अवश्य होते हैं. यही कारण है कि हिन्दी माध्यम वाले परीक्षार्थी आम तौर पर प्रारंभिक परीक्षा में ही बाहर हो जाते हैं.
प्रश्न यह है कि देश के लोक सेवकों को कितनी अंग्रेजी चाहिए ? उन्हें इस देश के लोक से संपर्क करने के लिए हिन्दी सीखनी जरूरी है या अंग्रेजी ? उन्हें जनता के सामने अंग्रेजी झाड़कर उनपर रोब जमाना है या उन्हें समझा बुझाकर उनसे आत्मीय संबंध जोड़ना और उनकी सेवा करना ? उनके साक्षात्कार अंग्रेजी माध्यम से क्यों लिए जाते हैं ? क्या उन्हें इंग्लैंड में सेवा देनी है ? इस देश के सबसे बड़े पद तो राष्ट्रपति, प्रधान मंत्री और गृहमंत्री के है. इन पदों पर बैठे लोगों का काम तो हिन्दी और गुजराती बोलने से चल जाता है और इस देश की जनता बार- बार उन्हें वोट देकर उनके कुशल प्रशासन पर अपनी स्वीकृति की मुहर भी लगा देती है. हिन्दी माध्यम के अपने बैच के टापर निशांत जैन ने अपना अनुभव बाँटते हुए कहा है कि हिन्दी माध्यम वाले आईएएस अधिकारी अंग्रेजी माध्यम वालों की तुलना में जनता के प्रति अधिक संवेदनशील देखे गए हैं. ऐसे लोक सेवकों को लोक सेवा का अधिकार क्यों मिलना चाहिए जो लोक की भाषा में बोल पाने में भी अक्षम हों ?
न्याय के क्षेत्र की दशा यह है कि आज हमारे देश में सुप्रीम कोर्ट से लेकर 25 में से 21 हाई कोर्टों में हिन्दी सहित किसी भी भारतीय भाषा का प्रयोग नहीं होता है. मुवक्किल को पता ही नहीं होता कि वकील और जज उसके केस के बारे में क्या सवाल- जवाब कर रहे हैं. उसे अपने बारे में मिले फैसले को समझने के लिए भी वकील के पास जाना पड़ता है और उसके लिए भी उसे पैसे देने पड़ते हैं.
सरकारी नौकरियों, प्रशासन और न्याय व्यवस्था में अंग्रेजी के वर्चस्व के लिए क्या जनता जिम्मेदार है या सरकार और उसकी नीतियाँ ? आज जब शिक्षा को व्यापार और मुनाफे के लिए ज्यादातर निजी क्षेत्र के हवाले कर दिया गया है, देश की अधिकाँश राज्य सरकारों ने सरकारी विद्यालयों को भी अंग्रेजी माध्यम में बदल दिया है और हमारे नौनिहालों से उनकी मातृभाषाएँ क्रूरतापूर्वक छीन ली हैं. केन्द्रीय विद्यालयों और नवोदय विद्यालयों में भी ऐसी व्यवस्था कर दी गई है कि बच्चों की हिन्दी आठवीं -नवीं के बाद ही छूट जाती है. उनके तर्क हैं कि अभिभावकों की यही माँग है. प्रश्न यह है कि जब अफसर से लेकर चपरासी तक की सभी नौकरियाँ अंग्रेजी के बलपर ही मिलेंगी तो कोई अपने बच्चे को हिन्दी पढ़ाने की मूर्खता कैसे करेगा ? निस्संदेह हिन्दी पढ़ने से नौकरी मिलने लगे तो लोग हिन्दी पढ़ाएँगे. यूपी बोर्ड में आठ लाख बच्चों के फेल होने की खबर तो सुर्खियों में थी और सारा दोष शिक्षकों पर डाला जा रहा था किन्तु इस ओर ध्यान नहीं था कि अंग्रेजी की शब्दावली और व्याकरण रटने में ही जब बच्चों का सारा समय चला जाएगा तो अपने घर की भाषा हिन्दी पढ़ने के लिए वे कैसे समय निकाल पाएँगे ? अब तो लोग अंग्रेजी को एक भाषा नहीं बल्कि ज्ञान का पर्याय मानने लगे हैं.
इस देश में तकनीकी, मेडिकल, मैनेजमेंट, कानून आदि की शिक्षा तो अंग्रेजी माध्यम से होती ही है राजधानी के विश्वविद्यालयों में मानविकी और सामाजिक विज्ञान की शिक्षा भी अंग्रेजी माध्यम से होने लगी है जबकि पढ़ाने वाले अध्यापक ज्यादातर हिन्दी पट्टी के ही हैं. इन सबके पीछे अंग्रेजी का दिनोंदिन बढ़ता रुतबा है जिसके लिए सिर्फ सरकारें जिम्मेदार हैं.
हाल ही में प्रकाशित अपनी पुस्तक “द इंग्लिश मीडियम मिथ” में संक्रान्त सानु ने प्रति व्यक्ति सकल राष्ट्रीय उत्पाद के आधार पर दुनिया के सबसे अमीर और सबसे गरीब, बीस -बीस देशों की सूची दी है. बीस सबसे अमीर देशों के नाम हैं, क्रमश: स्विट्जरलैंड, डेनमार्क, जापान, अमेरिका, स्वीडेन, जर्मनी, आस्ट्रिया, नीदरलैंड, फिनलैंड, बेल्जियम, फ्रांस, ब्रिटेन, आस्ट्रेलिया, इटली, कनाडा, इजराइल, स्पेन, ग्रीस, पुर्तगाल और साउथ कोरिया. इन सभी देशों में उन देशों की जनभाषा ही सरकारी कामकाज की भी भाषा है और शिक्षा के माध्यम की भी.
इसके साथ ही उन्होंने दुनिया के सबसे गरीब बीस देशों की भी सूची दी है. इस सूची में शामिल हैं क्रमश: कांगो, इथियोपिया, बुरुंडी, सीरा लियोन, मालावी, निगेर, चाड, मोजाम्बीक, नेपाल, माली, बुरुकिना फैसो, रवान्डा, मेडागास्कर, कंबोडिया, तंजानिया, नाइजीरिया, अंगोला, लाओस, टोगो और उगान्डा. इनमें से सिर्फ एक देश नेपाल है जहां जनभाषा, शिक्षा के माध्यम की भाषा और सरकारी कामकाज की भाषा एक ही है नेपाली. बाकी उन्नीस देशों में राजकाज की भाषा और शिक्षा के माध्यम की भाषा भारत की तरह जनता की भाषा से भिन्न कोई न कोई विदेशी भाषा है. ( द्रष्टव्य, द इंग्लिश मीडियम मिथ, पृष्ठ-12-13) इस उदाहरण से आसानी से समझा जा सकता है कि अंग्रेजी माध्यम हमारे देश के विकास में कितनी बड़ी बाधा है.
वास्तव में व्यक्ति चाहे जितनी भी भाषाएँ सीख ले किन्तु वह सोचता अपनी भाषा में ही है. हमारे बच्चे दूसरे की भाषा में पढ़ते हैं फिर उसे अपनी भाषा में सोचने के लिए अनूदित करते हैं और लिखने के लिए फिर उन्हें दूसरे की भाषा में ट्रांसलेट करना पड़ता है. इस तरह हमारे बच्चों के जीवन का एक बड़ा हिस्सा दूसरे की भाषा सीखने में चला जाता है. इसीलिए मौलिक चिन्तन नहीं हो पाता. मौलिक चिन्तन सिर्फ अपनी भाषा में ही हो सकता है. पराई भाषा में हम सिर्फ नकलची पैदा कर सकते हैं. अंग्रेजी माध्यम वाली शिक्षा सिर्फ नकलची पैदा कर रही है.
हमें स्मरण रखना चाहिए कि हम अपने जिस अतीत पर मुग्ध हैं उस अतीत की सारी उपलब्धियाँ अपनी भाषाओं में अध्ययन करने का परिणाम थीं. और आज भी यदि कुछ मौलिक अर्जित करना है तो अपनी भाषाओं को अपनाना ही पड़ेगा.
आज भी इस देश की सत्तर प्रतिशत जनता गावों में ही रहती है. उनकी शिक्षा ग्रामीण परिवेश की शिक्षण संस्थाओं में ही होती है. गाँवो की इन प्रतिभाओं को यदि मुख्य धारा में लाना है तो उन्हें उनकी अपनी भाषाओं में शिक्षा देना एकमात्र रास्ता है और यही हमारे संविधान का भी संकल्प है. हमारा संविधान, देश के प्रत्येक नागरिक को अवसर की समानता का अधिकार देता है.
अंत में मैं जोर देकर कहना चाहूँगा कि अंग्रेजी इस देश में सिर्फ एक विषय के रूप में पढ़ाई जानी चाहिए माध्यम के रूप में नहीं. माध्यम के रूप में किसी भी स्तर पर नहीं. इसके साथ ही नौकरियों में अंग्रेजी की जगह हमारी मातृभाषाओं को वरीयता मिलनी चाहिए
Friday, October 23, 2020
हिन्दी के योद्धा : जिनका आज जन्मदिन है-14 राजभाषा के लिए जिन्हें जेल और लाठियाँ मिलीं : श्यामरुद्र पाठक
हिन्दी के प्रचार- प्रसार के नाम पर हिन्दी के तथाकथित विद्वानों को प्रतिवर्ष सैकड़ों पुरस्कार और सम्मान दिए जाते हैं। किन्तु इन हिन्दी सेवियों से अलग एक ऐसा व्यक्ति भी देश में मौजूद है जिसने अपनी शानदार शैक्षिक योग्यता के बावजूद सुख और समृद्धि का नहीं, अपितु हिन्दी की प्रतिष्ठा के लिए संघर्ष का रास्ता चुना। जो हिन्दी के लिए लाठियाँ खाता है, अनशन और सत्याग्रह करता है और आजाद भारत में भी हिन्दी के वाजिब अधिकार के लिए जेल जाता है। जिसे कभी कोई पुरस्कार या सम्मान नहीं मिला। हाँ, लाठियां और जेल की हवा जरूर मिली किन्तु कभी हार नहीं माना। इस योद्धा का नाम है श्यामरुद्र पाठक।
श्यामरुद्र पाठक का जन्म बिहार के सीतामढ़ी जिले के बथनाहा गाँव में 24 अक्टूबर 1962 को हुआ था। उनके पिता एक अध्यापक थे। इनकी प्राथमिक शिक्षा अपने गाँव के विद्यालय में ही हुई। 1974 में राँची के समीप प्रसिद्ध नेतरहाट विद्यालय में प्रवेश लिया। 1979 में उन्होंने दसवीं की परीक्षा बिहार बोर्ड में रजत पदक के साथ उतीर्ण की।1980 में आईआईटी प्रवेश परीक्षा (IIT-JEE) में बैठे और पहली कोशिश में ही सफल हुए। आईआईटी दिल्ली में उन्होंने पंचवर्षीय एकीकृत एम. एस. (भौतिकी) पाठ्यक्रम में प्रवेश लिया। 1985 के गेट में 99.89 परसेन्टाईल अकों के साथ उन्होंने सम्पूर्ण भारत में प्रथम स्थान प्राप्त किया। श्यामरुद्र पाठक ने आईआईटी दिल्ली से ही ऊर्जा अध्ययन में एम. टेक. भी किया।
अपने हिन्दी प्रेम के कारण उन्होंने आईआईटी दिल्ली में बी.टेक. के अन्तिम वर्ष की परियोजना रिपोर्ट हिन्दी में लिखी। परियोजना रिपोर्ट ( शोध- प्रबंध ) अस्वीकार कर दिया गयी। वे अपनी मांग पर अड़ गए. संस्थान ने भी डिग्री देने से मना कर दिया। मामला संसद में पहुँचा और भगवत झा आजाद ने यह मुद्दा संसद में उठाया तब जाकर कहीं बात बनी और उन्हें अपनी परियोजना रिपोर्ट हिन्दी में जमा करने की अनुमति मिली।. इतना ही नहीं, दीक्षान्त समारोह के समय जब श्यामरुद्र पाठक ने देखा कि डिग्री तो केवल अंग्रेजी में दी जाती है तो उन्होंने केवल अंग्रेजी में छपी डिग्री लेने से इनकार कर दिया और घोषित कर दिया कि यदि उन्हे डिग्री अंगेरजी में मिली तो वे उसे डिग्री देने वाले के सामने ही फाड़ देंगे। दीक्षान्त समारोह में मुख्य अतिथि तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी थे। प्रशासन ने श्यामरुद्र पाठक को समझाया कि इस वर्ष वे हो जाने दें अगले वर्ष से उपाधि हिन्दी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में छपेगी। किन्तु श्यामरुद्र पाठक अपने निर्णय पर अडिग थे। अंत मे दीक्षान्त समारोह की तिथि टालनी पड़ी और राजीव गाँधी से दूसरी तिथि लेनी पड़ी। उस वर्ष हिन्दी और अंग्रेजी दोनो भाषाओं में अलग अलग उपाधि दी गई।
उपाधि पाने के बाद श्यामरुद्र पाठक के सामने देश- विदेश के अनेक बेहतर अवसर उपलब्ध थे। उन्हीं के सहपाठी रहे भारतीय रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम जी. राजन का उदाहरण सबके सामने है। किन्तु श्यामरुद्र पाठक के जीवन का उद्देश्य पद, प्रतिष्ठा और पैसा कमाना नहीं था। उन्हें तो ‘पूरी आजादी’ पाने के लिए लड़ाई लड़नी थी।
उन दिनों श्यामरुद्र पाठक के जीवन का एक मात्र मिशन था सभी आईआईटी में प्रवेश के लिए आयोजित संयुक्त प्रवेश परीक्षा में अंग्रेजी भाषा एवं अंग्रेजी माध्यम की अनिवार्यता समाप्त करवाना, जिससे कि सरकार की व्यवस्था के तहत इस परीक्षा का पाठ्यक्रम अलग- अलग भारतीय भाषाओं में 11वीं व 12वीं में पढ़ रहे छात्रों के साथ हो रहा अन्याय समाप्त हो. इस निमित्त आईआईटी दिल्ली के अन्दर अपने दो तीन वर्षों के प्रयासों को फलीभूत न होता हुआ देखकर ही इन्होंने अपना उपर्युक्त शोध प्रबंध हिन्दी में लिखने की ठानी थी जिससे कि या तो अंग्रेजी के दुर्ग से एक ईंट खिसक सके अगर हिन्दी में लिखा उनका शोध प्रबंध स्वीकार हो जाए, नहीं तो विश्व समुदाय के सामने यह प्रदर्शित हो सके कि भारत एक ऐसा अन्यायकारी देश है, जहाँ विदेशी भाषा अंग्रेजी की बेदी पर वहाँ की प्रतिभाओं की बलि चढ़ाई जाती है.
उन्होंने 1986 से 1989 के बीच दो बार आईआईटी दिल्ली से केन्द्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय तक अपने मित्रों के साथ पद-यात्रा की और कई बार उस मंत्रालय के समक्ष धरना और उपवास किया. इन उपवासों में 1988 का पाँच दिन का अनशन और 1989 का साढ़े उन्नीस दिनों का अनशन भी शामिल है. इन प्रयासों के फलस्वरूप संयुक्त प्रवेश परीक्षा में साल 1988 से अंग्रेजी भाषा का प्रश्न- पत्र समाप्त हुआ और साल 1990 से हिन्दी में प्रश्न- पत्र आना शुरू हुआ, और कई अन्य भारतीय भाषाओं में उत्तर लिखने का विकल्प मिला. अब जब कि परीक्षा में वस्तुनिष्ठ प्रश्न पूछे जाते हैं, अन्य भारतीय भाषाओं में उत्तर लिख पाने के विकल्प का अधिकार अर्थहीन हो गया है. प्रश्न- पत्र अभी भी सिर्फ अंग्रेजी और हिन्दी में दिए जा रहे हैं, जबकि 1989 में कहा गया था कि शुरुआत हिन्दी से की जा रही है और धीरे- धीरे अन्य भारतीय भाषाओं में भी प्रश्न पत्र दिए जाएंगे, अत: अन्य भारतीय भाषाओं के माध्यम से पढ़ रहे विद्यार्थियों के संदर्भ में श्री पाठक अभी भी ठगा हुआ ही महसूस करते हैं.
इसके बाद श्यामरुद्र पाठक ने भारतीय अदालतों में भारतीय भाषाओं को प्रतिष्ठित करने का बीड़ा उठाया। उन्होंने हिन्दी की वास्तविक दशा की ओर ध्यान दिलाते हुए कहा कि, “हिंदी वह भाषा है कि केवल इस भाषा को जानकर हिन्दुस्तान में कोई भी व्यक्ति इंजीनियरिंग, मेडिकल या मैनेजमेंट की पढ़ाई नहीं कर सकता, केंद्र सरकार द्वारा संचालित संस्थानों से कानून की पढ़ाई भी हासिल नहीं कर सकता; और कहीं से भी पढ़ाई हासिल करके देश के उच्चतम न्यायालय और 24 में से 20 ( संप्रति 25 में से 21) उच्च न्यायालयों में न तो वकालत कर सकता है और न ही न्यायाधीश बन सकता है, जबकि केवल अंग्रेज़ी भाषा का जानकार इन सभी अवसरों को पा सकता है। केवल हिंदी या किसी भी भारतीय भाषा का जानकार कोई व्यक्ति संघ लोक सेवा आयोग और कर्मचारी चयन आयोग की अधिकांश परीक्षाओं में सफल नहीं हो सकता।“
उच्चतम न्यायालय तथा देश के 24 में से 20 उच्च न्यायालयों में अंग्रेजी के साथ भारतीय भाषाओं के प्रयोग की माँग को लेकर श्यामरुद्र पाठक ने 4 दिसंबर 2012 से भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के मुख्यालय के बाहर सत्याग्रह आरंभ कर दिया। यह सत्याग्रह 225 दिन तक चला। सत्याग्रह आरंभ करने से पहले उन्होंने तत्कालीन राष्ट्रपति प्रतिभा देवी पाटिल, प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह, यूपीए अध्यक्ष सोनिया गाँधी, लोकसभा अध्यक्ष, भाजपा अध्यक्ष आदि तीस जनप्रतिनिधियों को पत्र लिखकर इस बाबत अवगत कराया था। उनकी माँग थी कि सर्वोच्च न्यायालय में अंग्रेजी के साथ-साथ हिन्दी और उच्च न्यायालयों में अंग्रेजी के अलावा संबंधित राज्यों की राजभाषा में बहस हो। इसके लिए वे भारतीय संविधान के अनुच्छेद 348 में संशोधन चाहते थे।
श्यामरुद्र पाठक को कांग्रेस मुख्यालय के बाहर सत्याग्रह करने की अनुमति बहुत मुश्किल से मिली थी। कई शर्तों के साथ उन्हें यह अनुमति मिली थी। शर्त के अनुसार वे सुबह 10 बजे कांग्रेस के दफ्तर के बाहर सत्याग्रह पर बैठते थे और शाम को छह बजे पुलिस उन्हें उठाकर तुगलक रोड थाने ले जाती थी। रात भर वे वहीं रहते थे। फिर सुबह वे सत्याग्रह स्थल पर पहुंच जाते थे। किन्तु 16 जुलाई 2012 की शाम लगभग साढ़े पांच बजे धरना के दौरान तुगलक रोड पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया और अगले दिन उन्हें तिहाड़ जेल भेज दिया। 24 जुलाई 2012 की रात को श्यामरुद्र पाठक को तिहाड़ जेल से रिहा कर दिया गया। आज भी वे अपनी उस माँग को लेकर संघर्षरत हैं। वे कहते हैं कि उनका आन्दोलन तबतक जारी रहेगा जबतक भारत के उच्चतम न्यायालय और देश के किसी भी उच्च न्यायालय में अंग्रेजी की अनिवार्यता बनी हुई है।
जब सिविल सेवाओं के अभ्यर्थियों ने 27 जून 2014 से संघ लोक सेवा आयोग द्वारा भारतीय भाषाओँ के साथ किये जा रहे भेदभाव के विरुद्ध प्रधानमंत्री आवास, 7 रेस कोर्स के बाहर धरना-प्रदर्शन आरंभ किया तो श्यामरुद्र पाठक ने उसमें बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया था। उसके बाद पुन: 6 जुलाई 2014 से राष्ट्रीय अधिकार मंच द्वारा सिविल सेवा प्रारंभिक परीक्षा के पाठ्यक्रम से सीसैट को हटाने और भारतीय भाषाओं के साथ भेदभाव को ख़त्म करने को लेकर किये जा रहे आमरण-अनशन में भी उन्होंने छात्रो का उत्साहवर्धन किया था। इस संबंध में उनपर झूठा आपराधिक मुकदमा भी दर्ज किया गया था।
श्री पाठक कहते हैं कि भारतीयों को अभी पूर्ण आजादी नहीं मिली है। जब तक लोगों को उनकी मातृभाषा में काम करने और पढ़ने का अधिकार नहीं मिलेगा तब तक यह कैसे कहा जा सकता है कि लोगों को आजादी मिल गई है? वे केवल सत्याग्रहोँ और अनशनों द्वारा ही नहीँ बल्कि लेखोँ द्वारा भी अपने हिंदी-प्रेम एवं तथाकथित अधूरी आज़ादी को संपूर्ण आज़ादी मेँ बदलने के लिए अनवरत प्रयास रत रहते हैँ। चाहे कितना भी विरोध हो, अपने विचारोँ को व्यक्त करने में वे तनिक भी संकोच नहीं करते। कभी कभी उनके भीतर का आक्रोश आपत्तिजनक वाक्यों के रूप में भी फूट पड़ता है जैसे आतंकवादियोँ को सलाम करना, राष्ट्रीय ध्वज पर थूकने की चाहत व्यक्त करना, सारे जहाँ से घटिया हिन्दोस्ताँ हमारा का गान करना इत्यादि। श्यामरुद्र पाठक के ऐसे वक्तव्यों पर प्राय: प्रतिकूल प्रतिक्रियाएं भी देखने को मिलती हैं। मुझे लगता है कि अपने अक्खड़ स्वभाव के चलते अपनी तमाम कोशिशों के बावजूद वे व्यापक समाज को लामबंद नहीं कर पाते और जनहित के इस कार्य में जनसमर्थन न पाने के कारण उनका स्वभाव भी कठोर होता जाता है।
श्यामरुद्र पाठक ने 19 मई 2017 को फेसबुक पर लिखा, “ मैं उस भारत देश के प्रति देश –द्रोही हूं जहां के उच्चतम न्यायालय में और 25 में से 21 उच्च न्यायालयों में जनता को देश की किसी भी भाषा में बोलना वर्जित है। जहां प्राथमिक कक्षा से ही अमीरों और गरीबों के लिए अलग अलग तरह की शिक्षा व्यवस्था है। जहां अमीरों और गरीबों के लिए अलग अलग तरह के चिकित्सालय हैं। जहां आम जनता को सरकारी स्कूलों में पढ़ाया तो जाता है भारतीय भाषाओं में, लेकिन उच्च शिक्षा में प्रवेश और नौकरियों में नियुक्ति के लिए आयोजित प्रतियोगिता परीक्षाओं में अंग्रेजी भाषा एवं अंग्रेजी माध्यम की अनिवार्यता है। जहां शराब द्वारा जनता की हो रही बहुआयामी बर्बादी के बावजूद सरकार शराब का व्यापार करवाना अपनी आमदनी का जरिया मानती है।.”
वर्तमान मोदी सरकार अपने को राष्ट्रवादी और हिन्दी का पोषक कहती है किन्तु श्यामरुद्र पाठक का अनुभव कुछ और ही है। उन्होंने फेसबुक पर लिखा कि, “मैंने राजीव गांधी के शासन-काल में सरकार के खिलाफ लंबा सत्याग्रह किया था। मैंने विश्वनाथ प्रताप सिंह के शासन-काल में सरकार के खिलाफ लंबे सत्याग्रह में भाग लिया था। मैंने पी. वी. नरसिंहा राव के शासन-काल में सरकार के खिलाफ एक छोटा सा सत्याग्रह किया था। मैंने अटल बिहारी वाजपेयी के शासन-काल में सरकार के खिलाफ एक छोटा सा सत्याग्रह किया था। मैंने मनमोहन सिंह के शासन-काल में सरकार के खिलाफ लंबा सत्याग्रह किया था। मैंने नरेन्द्र मोदी के शासन-काल में सरकार के खिलाफ लंबे सत्याग्रह में भाग लिया था और बाद में खुद भी अलग से सत्याग्रह किया।”
शीर्ष अदालतों में हिन्दी और भारतीय भाषाओं की प्रतिष्ठा की लड़ाई लड़ते हुए उन्होंने 3 मई 2017 से प्रधान मंत्री के कार्यालय के सामने धरना देना शुरू किया जिसे सरकार ने ज्यादा दिन तक चलने नहीं दिया। पुलिस उन्हें बलपूर्वक उठा ले गई। इस सत्याग्रह को आरंभ करने के पहले श्यामरुद्र पाठक ने प्रधान मंत्री को जो पत्र लिखा था उसे देखना किसी भी सचेत भारतीय नागरिक के लिए जरूरी है। पत्र लम्बा है इसलिए उसका संपादित अंश यहाँ दिया जा रहा है-
“विश्व के इस सबसे बड़े प्रजातंत्र में आजादी के सत्तर वर्षों के पश्चात् भी सर्वोच्च न्यायालय और देश के 25 में से 21 उच्च न्यायालयों की किसी भी कार्यवाही में भारत की किसी भी भाषा का प्रयोग पूर्णतः प्रतिबंधित है और यह प्रतिबंध भारतीय संविधान की व्यवस्था के तहत है।
14 फरवरी, 1950 को राजस्थान के उच्च न्यायालय में हिंदी का प्रयोग प्राधिकृत किया गया। तत्पश्चात् 1970 में उत्तर प्रदेश, 1971 में मध्य प्रदेश और 1972 में बिहार के उच्च न्यायालयों में हिंदी का प्रयोग प्राधिकृत किया गया। इन चार उच्च न्यायालयों को छोड़कर देश के शेष बीस उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय में सभी कार्यवाहियों में अंग्रेजी अनिवार्य है।
सन् 2002 में छत्तीसगढ़ सरकार ने इस व्यवस्था के तहत उस राज्य के उच्च न्यायालय में हिंदी का प्रयोग प्राधिकृत करने की माँग केन्द्र सरकार से की। सन् 2010 एवं 2012 में तमिलनाडु एवम् गुजरात सरकारों ने अपने उच्च न्यायालयों में तमिल एवम् गुजराती का प्रयोग प्राधिकृत करने के लिए केंद्र सरकार से माँग की। परन्तु इन तीनों मामलों में केन्द्र सरकार ने राज्य सरकारों की माँग ठुकरा दी।
सर्वोच्च न्यायालय में अंग्रेजी के प्रयोग की अनिवार्यता हटाने और एक या एकाधिक भारतीय भाषा को प्राधिकृत करने का अधिकार राष्ट्रपति या किसी अन्य अधिकारी के पास नहीं है। अतः सर्वोच्च न्यायालय में एक या एकाधिक भारतीय भाषा का प्रयोग प्राधिकृत करने के लिए और प्रत्येक उच्च न्यायालय में कम-से-कम एक-एक भारतीय भाषा का दर्जा अंग्रेज़ी के समकक्ष दिलवाने हेतु संविधान संशोधन ही उचित रास्ता है।
इसके तहत मद्रास उच्च न्यायालय में अंग्रेजी के अलावा कम-से-कम तमिल, कर्नाटक उच्च न्यायालय में अंग्रेजी के अलावा कम-से-कम कन्नड़, छत्तीसगढ़, हिमाचल प्रदेश, दिल्ली, उत्तराखंड और झारखंड के उच्च न्यायालयों में अंग्रेजी के अलावा कम-से-कम हिंदी और इसी तरह अन्य प्रांतों के उच्च न्यायालयों में अंग्रेजी के अलावा कम-से-कम उस प्रान्त की राजभाषा को प्राधिकृत किया जाना चाहिए और सर्वोच्च न्यायालय में अंग्रेजी के अलावा कम-से-कम हिंदी को प्राधिकृत किया जाना चाहिए।
ध्यातव्य है कि भारतीय संसद में सांसदों को अंग्रेजी के अलावा संविधान की अष्टम अनुसूची में उल्लिखित सभी बाईस भारतीय भाषाओं में बोलने की अनुमति है। श्रोताओं को यह विकल्प है कि वे मूल भारतीय भाषा में व्याख्यान सुनें अथवा उसका हिंदी या अंग्रेजी अनुवाद सुनें, जो तत्क्षण-अनुवाद द्वारा उपलब्ध कराया जाता है। अनुवाद की इस व्यवस्था के तहत उत्तम अवस्था तो यह होगी कि सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों में एकाधिक भारतीय भाषाओं के प्रयोग का अधिकार जनता को उपलब्ध हो परन्तु इन न्यायालयों में एक भी भारतीय भाषा के प्रयोग की स्वीकार्यता न होना हमारे शासक वर्ग द्वारा जनता को खुल्लमखुल्ला शोषित करते रहने की नीति का प्रत्यक्ष उदाहरण है।
किसी भी नागरिक का यह अधिकार है कि अपने मुकदमे के बारे में वह न्यायालय में स्वयं बोल सके, चाहे वह वकील रखे या न रखे। परन्तु अनुच्छेद 348 की इस व्यवस्था के तहत देश के चार उच्च न्यायालयों को छोड़कर शेष बीस उच्च न्यायालयों एवम् सर्वोच्च न्यायालय में यह अधिकार देश के उन सत्तानबे प्रतिशत (97 प्रतिशत) जनता से प्रकारान्तर से छीन लिया गया है जो अंग्रेजी बोलने में सक्षम नहीं हैं। सत्तानबे प्रतिशत जनता में से कोई भी इन न्यायालयों में मुकदमा करना चाहे या उन पर किसी अन्य द्वारा मुकदमा दायर कर दिया जाए तो मजबूरन उन्हें अंग्रेजी जानने वाला वकील रखना ही पड़ेगा जबकि अपना मुकदमा बिना वकील के ही लड़ने का हर नागरिक का अधिकार है। अगर कोई वकील रखता है तो भी वादी या प्रतिवादी यह नहीं समझ पाता है कि उसका वकील मुकदमे के बारे में महत्वपूर्ण तथ्यों को सही ढंग से रख रहा है या नहीं।
निचली अदालतों एवम् जिला अदालतों में भारतीय भाषा के प्रयोग की अनुमति है। अतः उच्च न्यायालयों में जब कोई मुकदमा जिला अदालत के बाद अपील के रूप में आता है तो मुकदमे से संबद्ध निर्णय एवम् अन्य दस्तावेजों के अंग्रेजी अनुवाद में समय और धन का अपव्यय होता है।
प्रस्तावित कानूनी परिवर्तन इस बात की संभावना भी बढ़ाएगा कि जो वकील किसी मुकदमे में जिला न्यायालय में काम करता है, वही वकील उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय में भी काम कर सके। इससे वादी-प्रतिवादी के ऊपर मुकदमे से सम्बंधित खर्च घटेगा।
यह कहना कि केवल हिंदी भाषी राज्यों (बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और राजस्थान) के उच्च न्यायालयों में भारतीय भाषा के प्रयोग की अनुमति होगी, अहिंदी भाषी प्रांतों के साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार है। परन्तु अगर यह तर्क भी है तो भी छत्तीसगढ़, हिमाचल प्रदेश, दिल्ली, उत्तराखंड एवं झारखंड के उच्च न्यायालयों में हिंदी के प्रयोग की अनुमति क्यों नहीं है ? ध्यातव्य है कि छत्तीसगढ़, उत्तराखंड एवम् झारखंड के निवासियों को इन राज्यों के बनने के पूर्व अपने-अपने उच्च न्यायालयों में हिंदी का प्रयोग करने की अनुमति थी।
अगर चार उच्च न्यायालयों में भारतीय भाषा में न्याय पाने का हक है तो देश के शेष बीस उच्च न्यायालयों के अधिकार क्षेत्र में निवास करने वाली जनता को यह अधिकार क्यों नहीं ? क्या यह उनके साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार नहीं है ? क्या यह अनुच्छेद 14 द्वारा प्रदत्त ‘विधि के समक्ष समता’ और अनुच्छेद 15 द्वारा प्रदत्त ‘जन्मस्थान के आधार पर भेदभाव का निषेध’ के मौलिक अधिकारों का उलंघन नहीं है ? और इस आधार पर छत्तीसगढ़, तमिलनाडु और गुजरात सरकार के आग्रहों को ठुकराकर क्या केन्द्र सरकार ने देश-द्रोह एवम् भारतीय संविधान की अवमानना का कार्य नहीं किया था ?
उच्च न्यायालयों एवम् सर्वोच्च न्यायालय में वकालत करने एवं न्यायाधीश बनने के अवसरों में भी तीन प्रतिशत अंग्रेजीदां आभिजात्य वर्ग का पूर्ण आरक्षण है, जो कि ‘अवसर की समता’ दिलाने के संविधान की प्रस्तावना एवं संविधान के अनुच्छेद 16 के तहत ‘लोक नियोजन के विषय में अवसर की समता’ के मौलिक अधिकार का उल्लंघन है।
अनुच्छेद 348 में संशोधन करने की हमारी प्रार्थना एक ऐसा विषय है जिसमें संसाधनों की कमी का कोई बहाना नहीं बनाया जा सकता है। प्रस्तावित संशोधन से अनुवाद में लगने वाले समय और धन की बचत होगी तथा वकीलों को रखने के लिए होने वाले खर्च में भी भारी कमी होगी। अनुच्छेद 348 का वर्तमान स्वरूप शासक वर्ग द्वारा आम जनता को शोषित करते रहने की दुष्ट भावना का खुला प्रमाण है। यह हमारी आजादी को निष्प्रभावी बना रहा है।
कहने के लिए भारत विश्व का सबसे बड़ा प्रजातंत्र है, परन्तु जहाँ जनता को अपनी भाषा में न्याय पाने का हक नहीं है, वहाँ प्रजातंत्र कैसा ? दुनिया के तमाम उन्नत देश इस बात के प्रमाण हैं कि कोई भी राष्ट्र अपनी जन-भाषा में काम करके ही उल्लेखनीय उन्नति कर सकता है। विदेशी भाषा में उन्हीं अविकसित देशों में काम होता है, जहाँ का बेईमान आभिजात्य वर्ग विदेशी भाषा को शोषण का हथियार बनाता है और इसके द्वारा विकास के अवसरों में अपना पूर्ण आरक्षण बनाए रखना चाहता है।“
श्यामरुद्र पाठक के सहपाठी जहाँ देश- विदेश में शीर्ष पदों पर बैठकर करोड़ों में खेल रहे हैं वहाँ श्यामरुद्र पाठक गाँधी की तरह अहिंसात्मक तरीके से जनता के अधिकारों की लड़ाई लड़ना ही अपने जीवन का लक्ष्य बना चुके हैं।
हम हिन्दी के असली योद्धा श्यामरुद्र पाठक को जन्मदिन की बधाई देते हैं और उन्हें जनहित के अपने उद्देश्य की सफलता की कामना करते हैं।
प्रो. अमरनाथ शर्मा
पूर्व हिंदी विभागाध्यक्ष, कोलकाता विश्वविद्यालय।
Saturday, November 30, 2019
जी एस टी में सुधार - तुरन्त होने की आवश्यकता
जीएसटी को भारतवर्ष का कर सुधारों के लिए लाया गया सबसे बड़ा प्रयास माना जाता है और जब इसे 1 जुलाई 2017 को पूरे देश में लागू किया गया था तो यह माना जा रहा था कि कर सुधारों और सरलीकरण की और यह सबसे बड़ा कदम उद्योग और व्यापार को बहुत बड़ी राहत देगा और साथ ही सरकार के राजस्व में भी वांछित वृद्धि करेगा . आइये देखें कि अब जब जीएसटी को लागू हुए 2.50 साल से भी अधिक हो चुके हैं तब इस कर से लेकर कर व्यापार और उद्योग एवं राजस्व की जो आशाएं और उम्मीद कितनी पूरी हुई है और फिलहाल जीएसटी का भविष्य क्या है . जीएसटी जिस स्तिथी में है उसका श्रेय या जवाबदेही किसे दी जानी चाहिए और किस तरह जीएसटी भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए लाईफ लाइन बन सकता है क्यों कि जीएसटी कर सरलीकरण एवं अर्थ व्यवस्था के विकास के लिए ही लाया गया था .
जीएसटी को लेकर जहां उद्योग एवं व्यापार जहां अपने आप को प्रक्रियाओं में उलझा हुआ महसूस कर रहा है वहीँ सरकार के भी राजस्व की लक्ष पूरी तरह प्राप्त नहीं हो रहे हैं. कहीं ना कहीं कोई कमी तो है ही और यदि इसे दूर कर दिया जाए तो जीएसटी आज भी भारतीय अर्थव्यवस्था की “लाईफ लाइन” साबित हो सकता है .
देखिये जीएसटी को लेकर उद्योग और व्यापार की जो प्रारम्भिक उम्मीदें थी कि जीएसटी आने पर एक ही कर का भुगतान करना होगा , प्रक्रियाएं सरल हो जायेंगी और व्यापार करना आसान हो जाएगा उनमें कोई भी अतिशोक्ति नहीं थी क्यों कि सरकार द्वारा जीएसटी को प्रचारित ही इसी तरह से किया गया था . जीएसटी को लेकर एक बहुत बड़ा सन्देश यह था “एक देश एक कर” और इसी के साथ सरलीकरण को भी इस नए कर का उद्देश्य बताया गया था .
जीएसटी के प्रमुख उद्देश्य “एक देश एक कर” , सरलीकरण और व्यापार करने में आसानी इत्यादि को भारतवर्ष के करदाता को समझाने में सरकार ने पूरे प्रयास किये और उस समय भारत सरकार इसमें पूरी तरह से सफल भी रही थी और इसी का परिणाम यह रहा कि भारत का उद्योग एवं व्यापार इस नई कर प्रणाली के लिए ना सिर्फ तैयार था बल्कि बेसब्री से इस कर के लागू होने का इन्तजार भी कर रहा था तभी तो आपने देखा होगा कि जब भारत में यह कर लागू किया गया तो इसके विरोध के स्वर इस कर कर स्वागत के स्वरों के मुकाबले बहुत ही कम थे.
जीएसटी को लेकर हमारी सरकार की इच्छा शक्ति बहुत ही दृढ़ थी क्यों बिना इसके जीएसटी जितना बड़ा कर सुधार लागू होना ही संभव नहीं था और सरकार की इस इच्छाशक्ति को कर दाताओंका भी पूरा समर्थन प्राप्त था.
जीएसटी लागू करने में भारत के करदाता और भारत सरकार के अतिरिक्त एक और पक्ष था वह पक्ष था जिसने यह कानून सरकार को बना कर दिया और जो सरकार और जीएसटी कौंसिल को सलाह देने का काम कर रहा था और इसी सलाहकार पक्ष ने सरकार और जीएसटी कौंसिल को विभिन्न मुद्दों पर सलाह भी दी थी और यही वह पक्ष था जिसने जीएसटी की प्रक्रियाएं भी बनाई और आज भी यही पक्ष जीएसटी की प्रक्रियाएं बदलने में और बनाने में सक्रीय है और हमारे कानून निर्माताओं ने इस सलाह्कार वर्ग पर जरुरत से ज्यादा भरोसा किया है. सरकार ने जनता को और कर दाताओं को तो यह समझा दिया कि जीएसटी सरलीकरण की और एक बहुत बड़ा कदम है लेकिन कानून और उससे जुडी प्रक्रियाओं को बनाने वाले इस सलाह्कार वर्ग को या तो सरकार यह उद्देश्य समझा ही नहीं सकी या फिर उन्होंने अर्थात जिन लोंगों ने इस कानून और जुडी हुई प्रक्रियाओं की रचना की उन्होंने ने इस लक्ष का महत्त्व समझा ही नहीं और इस तरह प्रक्रियाएं प्रारम्भ से ही बहुत ही सख्त बना दी गई और ऐसा होने पर उन्हें लागू होने से पूर्व उनके परिणामों पर किसी ने गौर नहीं किया और इन जटिल प्रक्रियाओं को रोकने की भी कोई कोशिश ही नहीं की .
इस कानून को बनाने के लिए जो भी प्रयास किये गए सरलीकरण से ज्यादा कर की “चोरी रोकने” के प्रयास ज्यादा थे और इसी प्रयास में सरलीकरण के उद्देश्य को गौण कर दिया गया और इसलिए प्रारम्भ में जो सख्त कानून बन गया अब उसमें जितने भी परिवर्तन किये जा रहें हैं वे इस कानून की प्रक्रियाओं को और भी विक्रत कर रही है . सरकार जीएसटी जो अब भी सरल बनाना चाहती है और इसके संकेत भी बार- बार दिए जा चुके हैं .
जीएसटी कानून जो है उसमें से यदि हम भरे जाने वाले रिटर्न और RCM जैसे अव्यवहारिक प्रावधान को हटा दें तो भारत के संघीय ढांचे में दोहरे अप्रत्यक्ष कर का यह लगभग आदर्श स्वरुप हो सकता है लेकिन यह बात हम इससे जुडी प्रक्रियाओं को लेकर नहीं कह सकते हैं . इस कानून के रचियताओं या सरकार और जीएसटी कौंसिल को सलाह देने वाले सलाहकारों ने इन प्रक्रियाओं को इतना कठिन बना दिया कि डीलर्स को इनका पालन करने में प्रारम्भ से ही करदाताओं को बहुत कठिनाइयां आई और जब वे इनका पालन नहीं कर पाए तो लेट फीस नामक दंड ने कोढ़ में खाज का काम किया.
प्रारम्भ से ही जीएसटी की जो प्रक्रियाएं बनाई गई उनके पालन के लिए डीलर्स तो छोडिये जीएसटी का तंत्र ही तैयार नहीं था इसी कारण से रिटर्न भरने के लिए वैकल्पिक फॉर्मस की व्यवस्था की गई जो कि आज 28 माह बाद भी GSTR-3B के रूप में जारी है . कई अवांछित रिटर्न्स बनाए गए जैसे ITC-04 फिर उन्हें बार – बार स्थगित कर एक निश्चित अवधि के लिए वापिस लिया गया लेकिन ये फॉर्म आज भी जारी है लेकिन जिन कारणों के लिए इस फॉर्म को दो साल के लिए वापिस लिया गया वे स्तिथियाँ आज भी वही है और डीलर्स को आज भी उम्मीद है कि ये फॉर्म वापिस ले लिया जाएगा . इस भ्रम और असमंजस की स्तिथी के लिए कोई तो जवाबदेही तय की जानी चाहिए और निवारण भी किया जाना चाहिए. उद्योग और व्यापार जितना जीएसटी प्रक्रियाओं में उलझाते जाओगे उतना ही उनकी उत्पादकता और व्यापार पर असर तो पडेगा ही और अंत में इसका कुछ तो असर अर्थव्यवस्था पर भी पडेगा.
देखिये जीएसटी में कुछ् गलतियां तो हुई ही है लेकिन इन्हें स्वीकार करने की जगह इन्हें विभिन्न तर्कों के जरिये समझाया जाता है जैसे इस समय जीएसटी नेटवर्क की क्षमता के बारे में किया जा रहा है . आपको जीएसटी से जुडा एक रोचक अनुभव बताता हूँ.
“कम्पोजीशन डीलर्स को प्रारम्भ में कहा गया उन्हें करयोग्य माल के साथ करमुक्त माल पर भी कम्पोजीशन कर चुकाना होता था और जब इस पर सवाल उठाया गया तो बड़े तार्किक ढंग से इसका सरकारी समर्थन किया गया . आप चाहें तो पुराने वीडियो देखकर इसकी पुष्टी कर सकते हैं . आपको पता है बाद में क्या हुआ ये सारे तर्क धरे रह गए और कम्पोजीशन डीलर्स (जो निर्माता नहीं थे ) उनपर से यह कर कर मुक्त वस्तुओं पर से हटा लिया गया.” इसी से पता चलता है कि सरकार ने भारत का सबसे बड़ा कर सरलीकरण किन अनुभवहीन हाथों में दे दिया था. क्या आपको लगता नहीं कि इनपुट क्रेडिट के 20% का प्रावधान भी इसी अनुभवहीनता का परिणाम है और यदि व्यापार और उद्योग इसके लिए उसी माह में इनपुट क्रेडिट रोकने की जगह 3 से 6 माह का समय मांग रहा है तो गलत क्या है ?
जीएसटी का पहला वर्ष 9 माह का था और यह 31 मार्च 2018 को समाप्त हो गया लेकिन इसके वार्षिक रिटर्न का समय बार-बार बढाया जा रहा है लेकिन इसके पीछे डीलर्स की कोई मांग जिम्मेदार नहीं है बल्कि अभी तक इसके लिए एक “आदर्श फॉर्म” ही नहीं बनाया जा सका है और भी इसके लिए एक बार फिर सरकार द्वारा 10 दिसंबर 2019 तक का समय मांगा जा रहा है तो आप सोचिये कि जब सरकारी क्षेत्र में ही जीएसटी फॉर्म्स को लेकर इतना असमंजस है तो डीलर्स यदि अपने अल्प साधनों के कारण कुछ रिटर्न्स नहीं समय पर भर पाए तो उनसे आप ब्याज तो वसूल ही रहें है लेट फीस के पीछे क्या तर्क है ? जीएसटी के रजिस्ट्रेशन समाप्त होने पर भरे जाने फॉर्म GSTR-10 का भी अधिकांश मामलों में कोई महत्त्व नहीं होता है लेकिन इस पर भी अधिकत्तम लेट फीस 10 हजार रूपये हैं .
यहाँ याद रखें कि वैकल्पिक रूप से जारी GSTR-3B एक ऐसा फॉर्म है जिसे यह रिटर्न है या नहीं यह तय़ करने में सरकार को लगभग 2 साल गये थे लेकिन उस पर भी हजारों रूपये लेट फीस वसूल की गई है. हर रिटर्न पर यह अलग –अलग लगती है और NIL रिटर्न्स में भी लेट फीस हजारो में पहुँच जाती है. सरकार डीलर्स की इन भूलों पर लचीला रुख कर जीएसटी में डीलर्स का और भी विशवास पैदा कर सकती है.
इस रिटर्न GSTR-3B के संशोधन की मांग लगातार की जाती रही है और पता नहीं कानून के किन प्रावधानों के तहत इसे अब तक रोक कर रखा गया है. GSTR-3B में संशोधन हो जाए तभी कर निर्धारण करदाता को बिना विभाग में बुलाये हो पायेंगे अन्यथा अधिकाँश कर निर्धारणों में परेशानी ही आएगी.
जीएसटी मिसमैच को एक बहुत बड़ा तकनीकी मुद्दा बना दिया गया है और सभी डीलर्स को इसे अपने स्तर पर निकालने के लिए छोड़ दिया गया है जब कि वेट में मिसमैच की गणना स्थानीय राज्य सरकारों द्वारा एक ही सॉफ्टवेयर के द्वारा कर सम्बंधित पक्षों को सूचित कर दिया जाता था . जीएसटी में भी सरकार क्यों नहीं डीलर्स से खरीद के “विक्रेता अनुसार” आंकड़े मांगे और उन्हें विक्रेता द्वारा भरे रिटर्न से केन्द्रीय स्तर पर मैच किया जाए ताकि मिसमैच अपने आप तैयार हो जाए और खरीददार को सूचित हो जाये और इसके साथ ही कर नहीं जमा कराने वाले विक्रेता भी चिन्हित किये जा सके लेकिन इस सम्बन्ध में सरकार को सबसे आसान तरीका यह लगा कि क्रेता , जो एक बार उस विक्रेता को कर दे चुका है जिसे भी रजिस्ट्रेशन सरकार ने ही दिया है, की इनपुट क्रेडिट रोक दी जाए जो कि न्यायसंगत नहीं है. वेट में मिसमैच ज्ञात करने और सूचित करने की जो प्रक्रिया अपनाई गई थी उसे ही जीएसटी में भी काम में लिया जाना चाहिए .
जीएसटी में विक्रय के आंकड़े भी “बिल टू बिल” मांगे जा रहें है जिससे कि प्रक्रिया का बोझ बढ़ जाता है इसे भी “डीलर टू डीलर” किया जाना चाहिए ताकि आंकड़ों और प्रक्रिया का बोझ थोड़ा कम हो सके और जीएसटी नेटवर्क भी इस घटे हुए बोझ का लाभ उठा सके और अच्छी तरह से काम कर सके.
जीएसटी में प्रक्रियाओं के पालन पर इस तरह से जोर दिया गया कि जैसे पूरे देश की अर्थव्यवस्था इन्ही “ जीएसटी प्रक्रियाओं” पर टिकी हुई है और देश का व्यापार और कर एकत्रीकरण प्राथमिकता में दूसरे और तीसरे नंबर चले गए हैं . यदि कर एकत्रीकरण ही प्राथमिकता होता तो सरकार कम से का RCM के उस हिस्से को तो वापिस ले लेती जिसका कोई आर्थिक प्रभाव नहीं पड़ने वाला है.
सरकार जीएसटी सुधार चाहती है और बार-बार इसका संकेत दिया जाता रहा है तो आइयें देखें कि जीएसटी सुधारों को लेकर सरकार की भरपूर इच्छाशक्ति के बाद भी रुकावट कहाँ है ? आइये इसे भी एक उदाहरण के द्वारा समझने का प्रयास करें – जीएसटी नेटवर्क की क्षमता एक समस्या है या नहीं इस पर कोई दो राय नहीं हो सकती है और यदि भारत में जीएसटी वांछित परिणाम नहीं दे पाया तो इसका एक बड़ा कारण जीएसटी नेटवर्क भी होगा और जीएसटी में जमीनी स्तर पर काम करने वाले लगभग सभी जीएसटी विशेषज्ञ जीएसटी नेटवर्क की क्षमता में वृद्धी की सलाह दे चुके हैं लेकिन अभी हाल सरकार द्वारा जीएसटी नेटवर्क की क्षमता में कमी को सिरे से ही ख़ारिज करते हए डीलर्स को अंतिम तीन दिन जीएसटी रिटर्न नहीं भरने की सलाह दी गई ताकि जीएसटी नेटवर्क के बोझ को घटाया जा सके . दूसरी और आयकर नेटवर्क की बात करें तो इस वर्ष आयकर नेटवर्क ने रिटर्न भरने के अंतिम दिन बिना किसी रूकावट के रिकॉर्ड सख्या में रिटर्न स्वीकार किये जिसका उल्लेख हमारे माननीय प्रधानमंत्री महोदय ने भी किया था . क्या इसका विकल्प यह नहीं हो सकता कि जीएसटी नेटवर्क की क्षमता ही बढ़ा दी जाए जो जीएसटी के प्रारम्भ से ही संकट में है और भारत जैसे सूचना तकनीक में उन्नत देश के लिए यह कहाँ मुश्किल है ? पर शायद सरकार को शायद इसी तरह की सलाह दी जा रही है ताकि यह समस्या हल ही नहीं हो सके .
सरकार को और जीएसटी कौंसिल को सलाह देने के लिए जीएसटी को जमीनी स्तर पर जानने वाले विशेषज्ञ वर्ग को भी शामिल करना जरुरी है ताकि डीलर्स का भी पक्ष और समस्याएं इस तरह से टाली नहीं जा सके. इस समय हो यह रहा है कि यदि कोई समस्या बताई भी जाती है तो निवारण खोजने की जगह सबसे पहले यह खोजा जाता है कि किस तरह से यह बताया जाए कि यह कोई समस्या ही नहीं है और ऐसे में समाधान तो देर सवेर होता ही है क्यों कि लम्बे समय तक इस तरह से काम नहीं हो सकता है लेकिन इन सब में एक तो समय बहुत खराब होता और जिस समय समस्या निवारण होना चाहिए उस समय नही होता है इससे करदाता की परेशानी बढ़ती जाती है .
जीएसटी नया कर है और इसमें सरकार और डीलर्स दोनों को भ्रम , असमंजस और कठिनाइयां आनी स्वाभाविक थी और दोनों ही पक्षों को इन्हें मानने के लिए तैयार रहना चाहिए तभी इनका समाधान हो सकता है क्यों सरल और सफल जीएसटी भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए “लाइफ लाइन” बन सकता है और यही इस समय की जरुरत भी है.