कुछ समय पहले मुझे
पता चल गया था कि दस दिन का गंभीर विपश्यना शिविर डलहौजी में किसी बौद्ध गुरू
द्वारा लगाया जायगा। आवश्यक स्वीकृति प्राप्त करने के बाद मदर डेक्लन, मैंने और
एक कैपुचिन फादर ने यह शिविर लिया। गुरूजी (श्री गोयन्का) मुंबई के एक धनी
उद्योगपति रह चुके हैं। उनके एक पत्नी और छ: बच्चे हैं। इन्होंने पिछले चौदह साल
तक इस विधि को सीखा और इसका अभ्यास किया। अब कुछ सालों से इस विधि को सीखने के
लिए पूरा समय दे रहे हैं।
इस विधि
को समझाना अत्यंत कठिन है; वस्तुत: इसमें
से गुजरकर इसे समझाना पड़ता है। दस-दिवसीय सफल विपश्यना शिविर
के लिए पंचशील का पालन करना आवश्यक है जो कि इसके नैतिक आधार हैं। ये पांच शील इस
प्रकार हैं :-
(१)
(कीट तक की) हत्या न करना, (२) चोरी न करना, (३) ब्रहृाचर्य का पालन करना, (४) झूठ न बोलना,
और (५) नशा-पता न करना ।
हमारे
लिए इन बातों का पालन करना ज्यादा कठिन नहीं था। हमारे समूह के ११० लोगों में १०
भारतीय थे। बाकी सब अमेरिकन, आस्ट्रेलियन, कनैडियन, जापानी, इटालियन,
फ्रांसीसी इत्यादि थे। अधिकतर युवक बीस से पैंतीस साल की उम्र के
थे।
प्रथम चार दिनों तक हमने पूर्ण रूप से सांस पर
ध्यान देने का कार्य किया। बारह, साढ़े-बारह घंटे तक हमारे
सांस के आने-जाने की लय ही हमारे ध्यान का केंद्र-बिंदु थी। विश्वास करें वास्तव
में यह बड़ा कठिन काम है। कई बार भाग जाने की इच्छा होने लगती थी। चार दिन बाद और
इससे पहले भी एक विशेष प्रकार की संवेदना नाक के नीचे और उपर वालें होंठ के उपर
अनुभव होने लगी।
जब इस प्रकार की संवेदना होती है तब व्यक्ति
अग्रिम चरण के लिए तैयार हो जाता है। यह चरण शिविर का सबसे महत्वपूर्ण भाग होता
है। यह ‘विपश्यना ध्यान’ नाम से जाना जाता है। इस समय श्वसन
क्रिया ध्यान का केंद्र नहीं होती, सिर से पैर तक शरीर के
सभी भागों पर ध्यान से काम करना आवश्यक है। धीरे-धीरे आपको पूरे शरीर में भिन्न-भिन्न
प्रकार की संवेदनाओ की अनुभूति होने लगती है- कभी बहुत तेज, कभी
दर्दभरी और कभी हल्की। यह तब तक होती रहती है जब तक लगातार हलचल पूरे शरीर में
प्रकंपन पैदा करती है। जो व्यक्ति दो, तीन, पांच या आठ शिविर कर चुकता है, वह दूसरों के
प्रकंपन को जान सकता है। एक प्रकार का विकिरण व्यक्तियों के बीच होने लगता है जो
आज एक वैज्ञानिक तथ्य है।
लेकिन हमारे सामान्य जीवन में विरपश्यना का
क्या महत्व है? क्यों इतने लोग – विशेष रूप से युवावर्ग-
दुनिया के हर कोने से इतनी उत्सुकता के साथ इन शिविरों में भाग ले रहे हैं?
संसार की आर्थिक उन्नति के इस
युग में मनुष्य की जिम्मेदारियां बढ़ रही हैं। सामाजिक और आर्थिक उन्नति के इस युग
में मनुष्य की जिम्मेदारियां बढ़ रही हैं। सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन बड़ी तेजी
से लोगों की तनावपूर्ण स्थिति को बढा रहे हैं। यह मानसिक तनाव मनुष्य के शारीरिक
स्वास्थ्य पर बहुत भारी दबाव डाल रहा है। इस मानसिक तनाव की स्थिति से बचने के
लिए युवावर्ग नशे की आदतों का शिकार होता जा रहा है। अगर किसी को शांति, मानसिक संतुलन और स्वानुशासन पाना है। इस ध्यानक्रिया के परिणामस्वरूप मन
की स्थिति ज्यादा स्पष्ट और ज्यादा शुद्ध होती जाती है। ध्यान इतना गहन हो जाता
है कि वह अर्द्धचेतन मन तक पहुँचकर हमारी असंतुष्टि, हमारी
निराशा के कारण को खोज निकालता है। यहां तक कि हमारी भावनात्मक स्थिति, क्रोध, घृणा, कटुता, ईर्ष्या के कारण को जान लेता है जो कि सभी बुराइयों की जड़ है। विपश्सना
हमारी सहायता करती है कि हम इन चीजों से दूर रहें, ये सब
हमसे बाहर की चीजें हैं। अगर इन्हें और टुकड़े कर-करके देखा जाय तो ये अपनी
प्रखरता खो देती हैं और गायब हो जाती हैं। अपने मन को सजग रखते हुए विपश्यना करने
से यह हमें हमारे विचारों तथा हमारी ईर्ष्या, द्वेष, कटुता, लोभ आदि भावनाओं को संयमित कर उन्हें प्यार व
करूणा में बदल देती है। यह हमें लगावरहित और शुद्ध उपेक्षाभाव रखते हुए स्वतंत्र
बने रहने में सहायक सिद्ध होती है, जो कि इन विकारों से
पूर्ण मुक्ति की ओर ले जाने वाला मार्ग है।
जैसा कि गोयन्काजी कहते हैं यह
शिविर किसी धार्मिक परंपरा पर आधारित नहीं है। यह एक विधि है जिसे अच्छी तरह समझकर
दो घंटे रोजाना अभ्यास पर उतारने से हमारी शारीरिक व मानसिक शक्तियों को बढ़ने
में सहायता मिलती है। हमें एक अच्छा ईसाई, एक अच्छा हिंदू,
एक अच्छा मुसलमान और एक अच्छा बौद्ध बनने में सहायक सिद्ध होती है।
यह हमें प्यार और करूणा के प्रकाश से प्रकाशित होने में सहायक होती है व समस्त
संसार के लिए मंगल-कामना करने योग्य बनाती
है। सभी साधकों ने, जिन्होनें शिविर किया, खुशी-खुशी मंगल भावनाओं के साथ अलविदा ली।
अक्तूबर,१९७२
[मदर मेरी डल्हौजी के एक कार्न्वेट स्कूल की ‘मदर
सुपीरियर’ हैं।]
(जब
रोमन कैथोलिक आर्डर के उच्चाधिकारियों को विश्वास हो गया कि विपश्यना विधि किसी
धार्मिक संप्रदाय से संबद्ध नही है, तब सभी को
विपश्यना शिविर करने की अनुमति दी जाने लगी । मदर मेरी, मदर डेक्लन और फादर लारेंस प्रथम ईसाई नेता और शिक्षक थे जिन्होंने विपश्यना की । उन्होंने सैंकड़ों ईसाई पादरियों व साध्वियों के लिए विपश्यना शिविरों के द्वार खोल दिए ।