Tuesday, July 28, 2015

नशीले पदार्थों के व्यसन और उपचार : विपश्यना के परिप्रेक्ष्य में - डॅा. आर. एम. चोखानी

       भूमिका:-  नशीले पदार्थो के व्यसन की समस्या इस समय सारे विश्व की समस्या बनी हुई है जिससे कोई भी 
सामाजिक या आर्थि‍क वर्ग अछूता नहीं रहा है। इन व्यसनों का दुष्प्रभाव मनुष्य के व्य‍क्त‍िगत स्वास्थ्य, मान‍वीय संबंधो, पारिवारिक जीवन एवं आ‍र्थि‍क स्थि‍ति पर पड़ता है। अपराध-वृत्त‍ि बढ़ती है, सुख-शांति भंग होती है। व्यसन की समस्या सचमुच समूची मानव जाति के लिए अभि‍शाप बन कर उभरी है। नशे की लत छुड़ाने या इसके व्यसनी को नया जीवन जीने का अवसर देने के लिए अनेक प्रकार के तरीके अपनाये गये हैं। जिनमें प्रमुखत: दवाओं से व्यसनी का उपचार ; वैयक्त‍िक, पारिवारिक, सामूहिक मनोचिकित्सा या रामर्श (psychotherapy & counselling) और अल्कोहोलिक्स अनोनिमस (alcoholics anonymous),  नारकोटिक्स अनोनिमस (narcotics anonymous), आदि स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा नशे की लत से छुटकारा दिलवाने के प्रयास निरंतर हो रहे हैं। परंतुपरिणाम संतोषजनक नहीं हैं, क्योंकि अधि‍कांश नशे के व्यसनी व्यक्त‍ि नशा करने, छोड़ने और उसे फिर से शुरू कर देने के दुष्चक्र से बाहर नहीं निकल पाते।
व्यसन क्यों होता है:- व्यसन-मुक्त‍ि के क्षेत्र में कार्य कर रहे चिकित्सकों एवं अनुसंधान-कर्ताओं ने पाया है कि सब तरह के व्यसनों को मूल कारण तृष्णा है और व्यसन केवल नशीले पदार्थो का ही नहीं, अपितु बहुत-सी दूसरी चीजों का भी होता है। व्यसन का अर्थ है जब व्यक्त‍ि किसी विशेष अनुभव, संवेदना या क्रिया के परवश हो जाय, उस‍की कामना में फँस जाय। यदि सचमुच व्यसन से मुक्ति‍ पानी है तो उपाय कामना तृष्णा के स्तर पर करना होगा, क्योंकि मूल कारण वही है। विपश्यना साधना यही करती है। जैसे कि भगवान बुद्ध ने कहा, “वेदना समोसरणा सब्बे धम्मा,” अर्थात मन में जो कुछ होता है वह शरीर पर किसी न किसी संवेदनाओ के स्तर पर की जाने वाली विपश्यना साधना मन की गहराइयों में जाकर व्यसन के मूल को उखाड़ती है।
    नशीले पदार्थों से शरीर में रासायनिक स्राव होते है जिसके कारण शरीर में एक प्रकार की सुखद संवेदना (सुख वेदना) होती है। नशा या आसक्त‍ि वास्तव में इन सुखद संवेदनाओं के प्रति होती है। क्योंकि य‍ह सुखद संवेदना नशीले पदार्थो के प्रयोग करने पर मिलती है, अत: नशा करने वाला व्यक्त‍ि बार-बार उन पदार्थों को लेने का आदी हो जाता है। इस प्रक्रिया में शरीर को उस पदार्थ का अभ्यास हो जाने पर उतनी सुखद संवेदना प्राप्त करने के लिए उत्तरोत्तर अधकि मात्रा में उसका प्रयोग करना पड़ता है। जिस पदार्थ का जितना तेज नशा होता है उतनी ही जल्दी या गहरा उसका दुष्प्रभाव होता है। इसीलिए विपश्यना साधना-शि‍विर में सम्म‍िलित होने के पूर्व ऐसे व्यसनी के लिए उ‍चित य‍ह है कि पहले वह नशीले पदार्थो का सेवन बेद करे और दवाओं की सहायता से ऐसी शारीरिक या मानसिक स्थि‍ति में आ जाय जिससे वह साधना का अभ्यास समुचित रूप से कर सके और शि‍विर का पूरा लाभ ले सके।
 यदि व्यसनी का उपचार न किया जाय तो धीरे-धीरे वह नशीले पदार्थ से होने वाली संवेदनाओं के अतिरिक्त उसकी तृष्णा से होने वाली संवेदनाओं के प्रति आसक्त हो जाता है। इस अवस्था में किसी नशीले पदार्थ से मिलने वाली उत्तेजना गौण हो जाती है और व्यसनी व्यक्त‍ि ऐच्छि‍क पदार्थ के प्रभाव के न मिलने पर दूसरा, फिर तीसरा, इस प्रकार बहुत-से पदार्थों के व्यसन का शि‍कार हो जाता है। अपने दैनिक जीवन में जब किसी नशीले पदार्थ के सुखद अनुभव की स्मृति व्यक्त‍ि के आसक्त‍ि या तृष्णा के संस्कारों को प्रबल करती रहती है, उनका संवर्धन करती रहती है। इन्हीं प्रबल संस्कारो के कारण ही कई बार व्यसनी वर्षों तक नशामुक्त रहने के बाद भी पुन: उसका प्रयोग शुरू कर देती है। एक बार पड़ी हुई नशे की लत का कभी भी जाग जाने का खतरा बना ही रहता है।
प्रज्ञा का उदय:- साधक अपने अनुभव से जानने लगता है कि उसकी आसक्ति‍ मात्र नशीले पदार्थों तक ही सीमित नहीं है अपितु काम, क्रोध, अहंकार आ‍दि मन के विकारों के प्रति भी है। इन विकारों के मन में जागने पर शरीर में विशेष प्रकार के रसायनों का स्राव होता है जिसके कारण शरीर पर संवेदना होती है। तो जैसे नशीले पदार्थों से उत्पन्न संवेदनाओं के प्रति आसक्त‍ि हुई थी, उसी प्रकार इन विकारों के कारण उत्पन्न संवेदनाओं के प्रति भी आसक्त‍ि जागती है। अवि़द्या का आस्रव या रसायन सबसे तीव्र है क्योंकि अविद्या के कारण ही कोई भय, क्रोध या वासना के विकार अपने मन में जगाता है। नशीले पदार्थों के दुरूपयोग से अविद्या अज्ञान के संस्कार और प्रबल हो जाते हैं। इसी कारण एक व्यसनी व्यक्त‍ि को विपश्यना के शि‍विर में संवेदनाओं का अनुभव अपेक्षाकृत देर से होता है। उसे कई शि‍विर भी लेने पड़ सकते हैं। परंतु यदि कोई धीरज वा लगन से काम करता रहे तो देर-सवेर उसके चेतन वा अचेतन चित्त के बीच की अविद्या की दीवार टूट जाती है और उसे पूरे शरीर में संवेदनाएं मिलने लगती हैं।
  संवेदनाओं के प्रति सजग रहने के साथ-साथ उनके अनित्य स्वभाव का बोध भी जगाया जाता है जिससे कि उन संवेदनाओं को साक्षीभाव से देखा जा सकता है। निरंतर अनित्यता का बोध जगाये रहते हुए संवेदना से तृष्णाके स्थान परसंवेदना से प्रज्ञाका उदय होता है, अर्थात हर संवेदना के साथ चाहे वह सुखद हो या दु:खद या असुखद-अदु:खद, राग या द्वेष के स्थान पर उन संवेदनाओं के अनित्य स्वभाव की प्रज्ञा जागती है और साधक समता में स्थि‍त रहता है। इस प्रकार नये संस्कार बनते नहीं और पुराने तीव्र गति से उपर आतें है और प्रतिक्रिया के अभाव में नष्ट होते जाते हैं। इस प्रकार विपश्यना नशे के व्यसन की जड़ तक पहुँच कर उसे वहीं से उखाड़ बाहर करती है और व्यसनी व्यक्ति‍ सचमुच अपने व्यसन के चंगुल से बाहर हो जाता है।
विपश्यना के व्यावहारिक लाभ  
  विपश्यना कोई जादू या चमत्कार नहीं है। नशे से मुक्त‍ि पाने के लिए दृढ़ निश्चय होना चाहिए। संवेदनाओं को तटस्थ्भाव से देखते हुए साधक धीरे-धीरे अपने लक्ष्य तक पहुँच जाता है। इसके लिए व्यसनी को पहले से तैयार करना पड़ता है। इस तैयारी के अंतर्गत उसे परामर्श (काउंसिलिंग) दिया जाता है एवं विपश्यना का प्रारंभि‍क चरण आनापानउसे सिखाया जाता है, जो बहुत आवश्यक है। ऐसा करने से साधक ठीक ढंग से काम कर पाता है और इसके अनुकूल परिमाण भी आते हैं। पर्थ (आस्ट्रेलिया) के नशामुक्त‍ि केंद्र, ‘‍सिरेनियन हाउस’ (Cyrenian House’) एवं ज्यूरिक (स्व‍िट्जरलैंड) के स्टार्ट अगेन’ (Start Again) नामक केंद्रो का भी ऐसा ही अनुभव है। ये केंद्र क्रमश: १९८१ वा १९९२ से विपश्यी साधकों द्वारा चलाये जा रहे हैं। विपश्यना के शि‍‍विर के बाद भी पूरा सहयोग वा परामर्श दिया जाता है ताकि व्यसनी साधना का अभ्यास नियमित रूप से करता रहे ।
    इन दोनों नशामुक्त‍ि केंद्रो में वहां रहने वाले रोगियों और काम करने वाले कर्मचारियों के लिए भी आनापान (विपश्यना) साधना का नियमित अभ्यास विपश्यना शि‍विरों में भाग लेने की व्यवस्था उनके लिए की जाती है। लगभग सभी कर्मचारी साधक हैं जो स्वयं व्यसन से मुक्त हैं। अपने दैनिक अभ्यास से, साधना के अनुरूप अपने व्यवहार से ये कर्मचारी व्यसनी व्यक्त‍ि के प्रति संवेदनशील से पेश आते है, प्रभावी ढंग से उनकी सहायता कर पाते हैं और उनके लिए एक आदर्श संस्थाओं ने विपश्यना के नूतन वा प्रभावशाली प‍रिणामों अपने कार्यक्रमों में शामिल करने में अपनी रूचि दिखायी है और अपने रोगियों वा कर्मचारियों को विपश्यना शि‍विरों में भाग लेने के लिए भेजा है ।
  विपश्यना साधना के अभ्यास से साधक जीवन जीने की कला सीख जाता है और दु:ख से अ‍धि‍काधि‍क मुक्त होता जाता है। वह विभि‍न्न परिस्थि‍तियों में अपने व्यवहार का नि‍रीक्षण करता है कि क्या वह समता में रहा या उसने प्रतिक्रिया की। जब भी वह प्रतिक्रिया करता है तभी उसके अंदर विकार जागता है और वह व्याकुल हो जाता है। कुछ क्षणों के लिए भी यदि साधक शरीर पर होने वाली संवेदनाओं को तटस्थभाव से देख ले तो उतने से ही मन समता में स्थि‍त हो जाता है और स्वयं का संतुलन बना रहता है। इससे साधक किसी भी परिस्थि‍ति में अंध-प्रति‍क्रिया करने के स्थान पर सही वा संतुलित निर्णय ले पाता है। इसी सिद्धांत के अनुरूप ही व्यसनी को परामर्श दिया जाता है कि जब भी उसमें नशीले पदार्थ लेने की तृष्णा जागे तब वह तुरंत ही उसे न ले बल्क‍ि कुछ देर, दस-पंद्रह मिनट तक, प्रतीक्षा करे। इस स्थि‍ति को स्वीकार करे कि मन में नशीला पदार्थ लेने की तृष्णा जागी है। इसके साथ-साथ उस समय शरीर पर जो संवेदना जागी हो उसे देखना शुरू कर दे, क्योंकि दोनों आपस में जुड़े हैं। संवेदनाओं के अनित्यबोध को अनुभव करते-करते उसे लगेगा कि उसकी नशा करने  की तृष्णा भी कमजोर पड़ती-पड़ती समाप्त हो गयी है। इस प्रकार जीवन के उतार-चढ़ाव वा तनापवभरी परिस्थि‍तियों में व्यसनी-साधक अब पहले की तरह नशीले पदार्थ का पुनर्सेवन नहीं करता, बल्क‍ि विपश्यना के अभ्यास से उत्तरोत्तर ऐसे पदार्थ के खतरे के समक्ष दृढ़ रह कर, डट कर उसका सामना कर सकता है।
उपसंहार :-     भगवान बुद्ध को ठीक ही महाभि‍षक या महावैद्य कहा जाता है कि उन्होंने दुनिया को विपश्यना साधना सिखायी जिसके अभ्यास से व्यक्त‍ि जीवन के समस्त रोगों से छुटकारा पा लेता है और उसका सारा व्यक्ति‍त्व अनंत मैत्री , अनंत करूणा , अनंत मुदिता वा अनंत उपेक्षाभाव से भर जाता है। जीवन सार्थक एवं सुखमय हो जाता है- अपने लिए भी और दूसरों के लिए भी। यह सब विपश्यना का दस दिन का एक शि‍विर कर लेने मात्र से ही नही हो जाता , पुरूषार्थ करना पड़ता है। दस दिन का शि‍विर करने के बाद साधना के नियमित वा निरंतर अभ्यास से विकास का सिलसिला शुरू हो जाता है जो साधक को निरंतर उन्नति की ओर ले जाता  है। जो भी अपने व्यसन से मुक्त होना चाहते हों उन्हें विपश्यना का मार्ग अपनाना चाहिए जिससे उनकी भी मुक्ति‍ हो और वे दूसरों के कल्याण में भी सहायक बन सकें । उनका भी भला हो और अन्य सभी का भी भला हो । सभी का मंगल हो, सभी का कल्याण हो। सभी सुखी हो !                                                                 अधि‍क जानकारी के लिए देखे साईट www.dhamma.org

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