Saturday, November 30, 2019

जी एस टी में सुधार - तुरन्त होने की आवश्यकता

जीएसटी – भारत में सबसे बड़ा कर सुधार अभी भी भारतीय अर्थव्यवस्था की लाईफ लाइन बन सकता है

जीएसटी को भारतवर्ष का कर सुधारों के लिए लाया गया सबसे बड़ा प्रयास माना जाता है और जब इसे 1 जुलाई 2017 को पूरे देश में लागू किया गया था तो यह माना जा रहा था कि कर सुधारों और सरलीकरण की और यह सबसे बड़ा कदम उद्योग और व्यापार को बहुत बड़ी राहत देगा और साथ ही सरकार के राजस्व में भी वांछित वृद्धि करेगा . आइये देखें कि अब जब जीएसटी को लागू हुए 2.50 साल से भी अधिक हो चुके हैं तब इस कर से लेकर कर व्यापार  और उद्योग एवं राजस्व की जो आशाएं और उम्मीद कितनी पूरी हुई है और फिलहाल जीएसटी का भविष्य क्या है . जीएसटी जिस स्तिथी में है उसका श्रेय या जवाबदेही किसे दी जानी चाहिए और किस तरह जीएसटी भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए लाईफ लाइन बन सकता है क्यों कि जीएसटी कर सरलीकरण एवं अर्थ व्यवस्था के विकास के लिए ही लाया गया था .

जीएसटी को लेकर जहां उद्योग एवं व्यापार जहां अपने आप को प्रक्रियाओं में उलझा हुआ महसूस कर रहा है वहीँ सरकार के भी राजस्व की लक्ष पूरी तरह प्राप्त नहीं हो रहे हैं. कहीं ना कहीं कोई कमी तो है ही और यदि इसे दूर कर दिया जाए तो जीएसटी आज भी भारतीय अर्थव्यवस्था की “लाईफ लाइन” साबित हो सकता है .

देखिये जीएसटी को लेकर उद्योग और व्यापार की जो प्रारम्भिक उम्मीदें थी कि जीएसटी आने पर एक ही कर का भुगतान करना होगा , प्रक्रियाएं सरल हो जायेंगी और व्यापार करना आसान हो जाएगा उनमें कोई भी अतिशोक्ति नहीं थी क्यों कि सरकार द्वारा जीएसटी को प्रचारित ही इसी तरह से किया गया था . जीएसटी को लेकर एक बहुत बड़ा सन्देश यह था “एक देश एक कर” और इसी के साथ सरलीकरण को भी इस नए कर का उद्देश्य बताया गया था .

जीएसटी के प्रमुख उद्देश्य “एक देश एक कर” , सरलीकरण और व्यापार करने में आसानी इत्यादि को भारतवर्ष के करदाता को समझाने में सरकार ने पूरे प्रयास किये और उस समय भारत सरकार इसमें पूरी तरह से सफल भी रही थी और इसी का परिणाम यह रहा कि भारत का उद्योग एवं व्यापार इस नई कर प्रणाली के लिए ना सिर्फ तैयार था बल्कि बेसब्री से इस कर के लागू होने का इन्तजार भी कर रहा था तभी तो आपने देखा होगा कि जब भारत में यह कर लागू किया गया तो इसके विरोध के स्वर इस कर कर स्वागत के स्वरों के मुकाबले बहुत ही कम थे.

जीएसटी को लेकर हमारी सरकार की इच्छा शक्ति बहुत ही दृढ़ थी क्यों बिना इसके जीएसटी जितना बड़ा कर सुधार लागू होना ही संभव नहीं था और सरकार की इस इच्छाशक्ति को कर दाताओंका भी पूरा समर्थन प्राप्त था.

जीएसटी लागू करने में भारत के करदाता और भारत सरकार के अतिरिक्त एक और पक्ष था वह पक्ष था जिसने यह कानून सरकार को बना कर दिया और जो सरकार और जीएसटी कौंसिल को सलाह देने का काम कर रहा था  और इसी सलाहकार पक्ष ने सरकार और जीएसटी कौंसिल को विभिन्न मुद्दों पर सलाह भी दी थी और यही वह पक्ष था जिसने जीएसटी की प्रक्रियाएं भी बनाई और आज भी यही पक्ष जीएसटी की प्रक्रियाएं बदलने में और बनाने में सक्रीय है और हमारे कानून निर्माताओं ने इस सलाह्कार  वर्ग पर जरुरत से ज्यादा भरोसा किया है. सरकार ने जनता को और कर दाताओं को तो यह समझा दिया कि जीएसटी सरलीकरण की और एक बहुत बड़ा कदम है लेकिन कानून और उससे जुडी प्रक्रियाओं को बनाने वाले इस सलाह्कार वर्ग को या तो सरकार यह उद्देश्य समझा ही नहीं सकी या फिर उन्होंने अर्थात जिन लोंगों ने इस कानून और जुडी हुई प्रक्रियाओं की रचना की उन्होंने ने इस लक्ष का महत्त्व समझा ही नहीं और इस तरह प्रक्रियाएं प्रारम्भ से ही बहुत ही सख्त बना दी गई और ऐसा होने पर उन्हें लागू होने से पूर्व उनके परिणामों पर किसी ने गौर नहीं किया और इन जटिल प्रक्रियाओं को रोकने की भी  कोई  कोशिश ही नहीं की .

इस कानून को बनाने के लिए जो भी प्रयास किये गए सरलीकरण से ज्यादा कर की “चोरी रोकने” के प्रयास ज्यादा थे और इसी प्रयास में सरलीकरण के उद्देश्य को गौण कर दिया गया और इसलिए प्रारम्भ में जो सख्त कानून बन गया अब उसमें जितने भी परिवर्तन किये जा रहें हैं वे इस कानून की प्रक्रियाओं को और भी विक्रत कर रही है . सरकार जीएसटी जो अब भी सरल बनाना चाहती है और इसके संकेत भी बार- बार दिए जा चुके हैं .

जीएसटी कानून जो है उसमें से यदि हम भरे  जाने वाले रिटर्न और RCM जैसे अव्यवहारिक प्रावधान को हटा दें तो भारत के संघीय ढांचे में दोहरे अप्रत्यक्ष कर का यह लगभग आदर्श स्वरुप हो सकता है लेकिन यह बात हम इससे जुडी प्रक्रियाओं को लेकर नहीं कह सकते हैं . इस कानून के रचियताओं या सरकार और जीएसटी कौंसिल को सलाह देने वाले सलाहकारों ने इन प्रक्रियाओं को इतना कठिन बना दिया कि डीलर्स को इनका पालन करने में प्रारम्भ से ही करदाताओं को  बहुत कठिनाइयां आई और जब वे इनका पालन नहीं कर पाए तो लेट फीस नामक दंड ने कोढ़ में खाज का काम किया.

प्रारम्भ से ही जीएसटी की जो प्रक्रियाएं बनाई गई उनके पालन के लिए डीलर्स तो छोडिये जीएसटी का तंत्र ही तैयार नहीं था इसी कारण से रिटर्न भरने के लिए वैकल्पिक फॉर्मस की व्यवस्था की गई जो कि आज 28 माह बाद भी GSTR-3B के रूप में जारी है . कई अवांछित रिटर्न्स बनाए गए जैसे ITC-04 फिर उन्हें बार – बार स्थगित कर एक निश्चित अवधि के लिए वापिस लिया गया लेकिन ये फॉर्म आज भी जारी है लेकिन जिन कारणों के लिए इस फॉर्म को दो साल के लिए वापिस लिया गया वे  स्तिथियाँ आज भी वही है और डीलर्स को आज भी उम्मीद है कि ये फॉर्म वापिस ले लिया जाएगा . इस भ्रम और असमंजस की स्तिथी के लिए कोई तो जवाबदेही तय की जानी चाहिए और निवारण भी किया जाना चाहिए. उद्योग और व्यापार  जितना जीएसटी प्रक्रियाओं में उलझाते जाओगे उतना ही उनकी उत्पादकता और व्यापार पर असर तो पडेगा ही और अंत में इसका कुछ तो असर अर्थव्यवस्था  पर भी पडेगा.

देखिये जीएसटी में कुछ् गलतियां तो हुई ही है लेकिन इन्हें स्वीकार करने की जगह इन्हें विभिन्न तर्कों के जरिये समझाया जाता है जैसे इस समय जीएसटी नेटवर्क की क्षमता के बारे में किया जा रहा है . आपको जीएसटी से जुडा एक रोचक अनुभव बताता हूँ.

“कम्पोजीशन डीलर्स को प्रारम्भ में कहा गया उन्हें करयोग्य माल के साथ करमुक्त माल पर भी कम्पोजीशन कर चुकाना होता था और जब इस पर सवाल उठाया गया तो बड़े तार्किक ढंग से इसका सरकारी समर्थन किया गया . आप चाहें तो पुराने वीडियो देखकर इसकी पुष्टी कर सकते हैं . आपको पता है बाद में क्या हुआ ये सारे तर्क धरे रह गए और कम्पोजीशन डीलर्स (जो निर्माता नहीं थे ) उनपर से यह कर कर मुक्त वस्तुओं पर से हटा लिया गया.” इसी से पता चलता है कि सरकार ने भारत का सबसे बड़ा कर सरलीकरण किन अनुभवहीन हाथों में दे दिया था. क्या आपको लगता नहीं कि इनपुट क्रेडिट के 20% का प्रावधान भी इसी अनुभवहीनता का परिणाम है और यदि व्यापार और उद्योग इसके लिए उसी माह में इनपुट क्रेडिट रोकने की जगह 3 से 6 माह का समय मांग रहा है तो गलत क्या है ?

जीएसटी का पहला वर्ष 9 माह का था और यह 31 मार्च 2018 को समाप्त हो गया लेकिन इसके वार्षिक रिटर्न का समय बार-बार बढाया जा रहा है लेकिन इसके पीछे डीलर्स की कोई मांग जिम्मेदार नहीं है बल्कि अभी तक इसके लिए एक “आदर्श फॉर्म” ही नहीं बनाया जा सका है और भी इसके लिए एक बार फिर सरकार द्वारा 10 दिसंबर 2019 तक का समय मांगा जा रहा है तो आप सोचिये कि जब सरकारी क्षेत्र में ही जीएसटी फॉर्म्स को लेकर इतना असमंजस है तो डीलर्स यदि अपने अल्प साधनों के कारण कुछ रिटर्न्स नहीं समय पर भर पाए तो उनसे आप ब्याज तो वसूल ही रहें है लेट फीस के पीछे क्या तर्क है ? जीएसटी के रजिस्ट्रेशन समाप्त होने पर भरे जाने फॉर्म GSTR-10 का भी अधिकांश मामलों में कोई महत्त्व नहीं होता है लेकिन इस पर भी अधिकत्तम लेट फीस 10 हजार रूपये हैं .



यहाँ याद रखें कि वैकल्पिक रूप से जारी  GSTR-3B एक ऐसा फॉर्म है जिसे यह रिटर्न है या नहीं यह तय़ करने में सरकार को लगभग 2 साल गये थे लेकिन उस पर भी हजारों रूपये लेट फीस वसूल की गई है. हर रिटर्न पर यह अलग –अलग लगती है और  NIL रिटर्न्स में भी लेट फीस हजारो में पहुँच जाती है. सरकार डीलर्स की  इन भूलों पर लचीला रुख कर जीएसटी में डीलर्स का और भी विशवास पैदा कर सकती है.

इस रिटर्न GSTR-3B के संशोधन की मांग लगातार की जाती रही है और पता नहीं कानून के किन प्रावधानों के तहत इसे अब तक रोक कर रखा गया है. GSTR-3B में संशोधन हो जाए तभी कर निर्धारण करदाता को बिना विभाग में बुलाये हो पायेंगे अन्यथा अधिकाँश कर निर्धारणों में परेशानी ही आएगी.

जीएसटी मिसमैच को एक बहुत बड़ा तकनीकी मुद्दा बना दिया गया है और सभी डीलर्स को इसे अपने स्तर पर निकालने के लिए छोड़ दिया गया है जब कि वेट में मिसमैच की गणना स्थानीय राज्य  सरकारों द्वारा एक ही सॉफ्टवेयर के द्वारा कर सम्बंधित पक्षों को सूचित कर दिया जाता था . जीएसटी में भी सरकार क्यों नहीं डीलर्स से खरीद के “विक्रेता अनुसार” आंकड़े मांगे और उन्हें विक्रेता द्वारा भरे रिटर्न से केन्द्रीय स्तर पर  मैच किया जाए ताकि मिसमैच अपने आप तैयार हो जाए और खरीददार को सूचित हो जाये और इसके साथ ही कर नहीं जमा कराने वाले विक्रेता भी चिन्हित किये जा सके लेकिन  इस सम्बन्ध में सरकार को सबसे आसान तरीका यह लगा कि क्रेता , जो एक बार उस विक्रेता को कर दे चुका है जिसे भी रजिस्ट्रेशन सरकार ने  ही दिया है, की इनपुट क्रेडिट रोक दी जाए जो कि न्यायसंगत नहीं है. वेट में मिसमैच ज्ञात करने और सूचित करने की जो प्रक्रिया अपनाई गई थी उसे ही जीएसटी में भी काम में लिया जाना चाहिए .

जीएसटी में विक्रय के आंकड़े भी “बिल टू बिल” मांगे जा रहें है जिससे कि प्रक्रिया का बोझ बढ़ जाता है इसे भी “डीलर टू डीलर” किया जाना चाहिए ताकि आंकड़ों और प्रक्रिया का बोझ थोड़ा कम हो सके और जीएसटी नेटवर्क भी इस घटे हुए बोझ का लाभ उठा सके और अच्छी तरह से काम कर सके.

जीएसटी में प्रक्रियाओं के पालन पर इस तरह से जोर दिया गया कि जैसे पूरे देश की अर्थव्यवस्था इन्ही “ जीएसटी प्रक्रियाओं” पर टिकी हुई है और देश का व्यापार और कर एकत्रीकरण प्राथमिकता में दूसरे और तीसरे नंबर चले गए हैं . यदि कर एकत्रीकरण ही प्राथमिकता होता तो सरकार कम से का RCM के उस हिस्से को तो वापिस ले लेती जिसका कोई आर्थिक प्रभाव नहीं पड़ने वाला है.

सरकार जीएसटी सुधार चाहती है और बार-बार इसका संकेत दिया जाता रहा है तो आइयें देखें कि जीएसटी सुधारों को लेकर सरकार की भरपूर इच्छाशक्ति के बाद भी रुकावट कहाँ है ? आइये इसे भी एक उदाहरण के द्वारा समझने का प्रयास करें – जीएसटी नेटवर्क की क्षमता एक समस्या है या नहीं इस पर कोई दो राय नहीं हो सकती है और यदि भारत में जीएसटी वांछित परिणाम नहीं दे पाया तो इसका एक बड़ा कारण जीएसटी नेटवर्क भी  होगा और जीएसटी में जमीनी स्तर पर काम करने वाले लगभग सभी जीएसटी विशेषज्ञ जीएसटी नेटवर्क की क्षमता में वृद्धी की सलाह दे चुके हैं लेकिन अभी हाल सरकार द्वारा जीएसटी नेटवर्क की क्षमता में कमी को सिरे से ही ख़ारिज करते हए डीलर्स को अंतिम तीन दिन जीएसटी रिटर्न नहीं भरने की सलाह दी गई ताकि जीएसटी  नेटवर्क के बोझ को घटाया जा सके . दूसरी और आयकर नेटवर्क की बात करें तो इस वर्ष आयकर नेटवर्क ने रिटर्न भरने के अंतिम दिन बिना किसी रूकावट के रिकॉर्ड सख्या में रिटर्न स्वीकार किये जिसका उल्लेख हमारे माननीय प्रधानमंत्री महोदय ने भी किया था . क्या इसका विकल्प यह नहीं हो सकता कि जीएसटी नेटवर्क की क्षमता ही बढ़ा दी जाए जो जीएसटी के प्रारम्भ से ही संकट में है और भारत जैसे सूचना तकनीक में उन्नत देश के लिए यह कहाँ मुश्किल है ? पर शायद  सरकार को शायद इसी तरह की सलाह दी जा रही है ताकि यह समस्या हल ही नहीं हो सके .

सरकार को और जीएसटी कौंसिल को सलाह देने के लिए जीएसटी को जमीनी स्तर पर जानने वाले विशेषज्ञ वर्ग को भी शामिल करना जरुरी है ताकि डीलर्स का भी पक्ष और समस्याएं इस तरह से टाली नहीं जा सके. इस समय हो यह रहा है कि यदि कोई समस्या बताई भी जाती है तो निवारण खोजने की जगह सबसे पहले यह खोजा जाता है कि किस तरह से यह बताया जाए कि यह कोई समस्या ही नहीं है और ऐसे में समाधान तो देर सवेर होता ही है क्यों कि लम्बे समय तक इस तरह से काम नहीं हो सकता है लेकिन इन सब में एक तो समय बहुत खराब होता और जिस समय समस्या निवारण होना चाहिए उस समय नही होता है इससे करदाता की परेशानी बढ़ती जाती है .

जीएसटी नया कर है और इसमें सरकार और डीलर्स दोनों को भ्रम , असमंजस और कठिनाइयां आनी स्वाभाविक थी और दोनों ही पक्षों को इन्हें मानने के लिए तैयार रहना चाहिए तभी इनका समाधान हो सकता है क्यों सरल और सफल जीएसटी भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए “लाइफ लाइन” बन सकता है और यही इस समय की जरुरत भी  है.

Wednesday, November 13, 2019

सरकार के अध‍िकार‍ियों की जी एस टी के संबंध में मनमानी

  जी एस टी को लगे दो साल से भी अध‍िक हो गए हैं पुराने कानूनों का समय से अनुपालन अध‍िवक्ताओं व सी ए से हो नहीं पा रहा है ज‍िसका ताजा उदाहरण जी एस टी आर 9 का है!इसके भरने की  समय सीमा बार बार बढ़ाई गयी पर अध‍िवक्ताओं , व्यापार‍ियों व सी ए द्वारा यह नही भरा जा सका । सरकार द्वारा कई बार इसके भरने के ल‍िए स्पष्टीकरण जारी क‍िए गए पर इसके बावजूद इसे भरा नहीं जा सका । अंतत: सरकार द्वारा 2 करोड़ से कम टर्नओवर वाले व्यापारियो को इसके भरने से छूट प्रदान कर दी गयी । पर सरकार को यह समझना चाहिए क‍ि वे क्या कारण थे ज‍िनके कारण व्यापारियों , अध‍िवक्ताओं व सी ए द्वारा इन्हें भरा जाना संभव नहीं हो सका । सच्चाई यह है क‍ि सरकार द्वारा जारी क‍िए फार्मो में कमी है ज‍िन्हें सही भरा जाना संंभव नहीं है ।
   फार्म 9 तो भर नही पा रहें उपर से कोढ़ में खाज करते हुए सरकार द्वारा नया न‍ियम लागू कर द‍िया गया है क‍ि खरीददार के जी एस टी आर 2A मे ज‍ितने ब‍िल अगले महीने की ११ तारीख तक आ जाएगें उन्ही का लाभ ल‍िया जाएगा , यह न‍ियम पूरी तरह से अव्यवहार‍िक है ज‍िसका अनुपालन होना असंभव है । क‍िन लोगाे ने 11 तारीख तक र‍िटर्न तक भर द‍िया यह जान पाना लगभग असंभव है अथवा इतना समय खाने वाला है क‍ि एक टैक्स प्राैफैश्नल द्वारा केवल 5 या 10 र‍िटर्न भर पाना ही संभव है । सरकार द्वारा नए नए न‍ियम बनाए जा रहे हैं पर अभी तक यह नहीं देखा गया है क‍ि अब तक बनाए गए न‍ियमों का पालन क्यों नहीं हो पा रहा है ।
  मेरी सरकार से मांग है इतना अव्यवहार‍िक कानून बनाने वालाे , इतना समय बीत जाने के बाद भी उसमें सुधार करने के स्थान पर और भी अव्यवहार‍िक कानून बनाने वालो के व‍िरुद्ध एक जांच कमेटी बनायी जाए ज‍िसमें व्यापार‍ियों व टैक्स प्राेेफेशनल्स को शामिल क‍िया जाए । 

विपश्यना - कामवासना से मुक्ति का वैग्यानिक रास्ता

   
      कामवासना मानवमन की सबसे बड़ी दुर्बलता है । जिन तीन तृष्णाओं के कारण वह भवनेत्री में बंधा रहता है उसमें कामतृष्णा प्रथम है , प्रमुख है । माता पिता के काम संभोग से मानव की उत्पत्ति होती है । अतः अंतर्मन की गहराइयों तक कामभोग का प्रभाव छाया रहता है । इसके अतिरिक्त अनेक जन्मों के संचित स्वयं अपने काम संस्कार भी साथ चलते ही हैं । अतः मुक्ति के के पथ पर चलने वाले व्यक्ति के लिए काम भोग के संस्कारों से छुटकारा पाना बहुत कठिन होता है । विपश्यना करनी न आए तो असंभव ही हो जाता है ।
काम वासनाओं से छुटकारा पा कर कोई व्यक्ति ब्रह्मचर्य का जीवन जीना चाहता है परंतु बार बार मन में वासना के तूफान उठते हैं और उसे व्याकुल बनाते हैं । कहीं ब्रह्मचर्य भंग न हो जाए इसलिए वह कठोरतापूर्वक वासनाओं का दमन करता है और परिणामतः अपने भीतर तनाव की ग्रंथियां बांधता है दमन द्वारा वासनाओं से मुक्ति मिलती नहीं । भीतर ही भीतर वासना उमड़ती कुलबुलाती रहती है और मन को मोहती रहती है। या दमन द्वारा ब्रह्मचर्य पालने वाला कोई विश्वामित्र जैसा साधक मेनका जैसी अप्सरा की रूप माधुरी पर फिसल जाता है तो आत्मग्लानि, आत्मक्षोभ और आत्मगर्हा से भर उठता है । ऐसा होने पर अपराध की ग्रथियां बांध बांध कर अपनी व्याकुलता को और बढ़ाता है ।
इसीलिए फ्रायड जैसे मनोविज्ञानवेत्ता ने कामवासना के दमन को मानसिक तनाव और व्याकुलता का प्रमुख कारण माना और काम भोग की खुली छूट को प्रोत्साहित किया । अनेक लोग इस मत के पक्षधर बने । आज के युग के कुछएक साधना सिखाने वाले लोग भी इस बहाव में बह गए । ऐसे लोगों ने रोग को तो ठीक तरह से समझा, पर रोग निवारण का जो इलाज ढूंढा, वह रोग के बढ़ाने का ही कारण बन बैठा । काम वासना का दमन एक अंत है , जो सचमुच रोग निवारण का सही उपाय नहीं है । परंतु उसे खुली छूट देना ऐसा दूसरा अंत है जो कि रोग निवारण की जगह रोग संवर्धन का ही काम करता है ।
जब कोई व्यक्ति बुद्ध बनता है तो तृष्णा के सभी बंधनों को भग्न करके विकार विमुक्ति के ऐश्वर्य का जीवन जीता है । इसीलिए वह भगवान कहलाने का अधिकारी होता है । ऐसा व्यक्ति काम तृष्णा, भव तृष्णा और विभव तृष्णा , इन तीनों से छुटकारा पा लेता है और जिस विपश्यना विद्या ( भगवान बुद्ध की ध्यान की विधि ) द्वारा यह मुक्त अवस्था प्राप्त की , उसे ही करुण चित्त से लोगों को बांटता है ।
विपश्यना साधना की विधि न विकारों के दमन के लिए है और न उन्हें खुली छूट देने के लिए । विपश्यना विधि इन दोनों अतियों के बीच का मध्यम मंगल मार्ग है जो जागे हुए विकार को साक्षी भाव से देखना सिखाती है जिससे कि अतंर्मन की गहराइयों में दबे हुए काम विकारों को भी जड़ से उखाड़ना का काम शुरू हो जाता है कुशल विपश्यी साधक समय पाकर इस विधि में पारंगत होता है और कामविकारों का सर्वथा उन्मूलन कर लेता है । और सहज भाव से ब्रह्मयर्च का पालन करने लगता है । इसके अभ्यास में समय लगता है । बहुत परिश्रम , पुरूषार्थ , पराक्रम करना पड़ता है । परंतु यह पराक्रम देहदंडन का नहीं , मानस दमन का नहीं , बल्कि मनोविकारों को तटस्थ भाव से देख सकने की क्षमता प्राप्त करने का है जोकि प्रारम्भ में बड़ा कठिन लगता है पर लगन और निष्ठा से अभ्यास करते हुए साधक देखता है कि शनैः शनैः उसके मन पर वासना की गिरफ्त कम होती जा रही है ।दमन नहीं करने के कारण कोई तनाव भी नहीं बढ़ रहा है और समय पा कर सारे कामविकारों से मुक्त हो कर ब्रह्मचर्य का जीवन जीना सहज हो गया है । यह सब कैसे होता है । इसे समझें ।
पुरुष के लिए नारी के और नारी के लिए पुरुष के रूप, शब्द, गंध, रस और स्पर्शसे बढ़ कर अन्य कोई लुभावना आलंबन नहीं होता । यह पांचों आलंबन आंख, कान, नाक, जीभ और त्वचा कीं इंद्रियों पर आघात करते हैं अथवा इनकी याद और कल्पना चिंतन के रूप में मन की इंद्रिय पर आघात करती है तो ही वासना के विकार जगने का काम आंरंभ होता है । पहली पांचों इंद्रियां शरीर पर स्थापित है ही । छठी मन की इंद्रिय भी शरीर की सीमा के भीतर ही होती है । अतः विपश्यना साधना का अभ्यास साढ़े तीन हाथ की काया के भीतर ही किया जाता है बाहर नहीं । कामतृष्णा जहां जागती है, वहीं उसे जड़ से उखाड़ा जा सकता है, अन्यत्र नहीं । साढ़े तीन हाथ की काया में इंद्रिय सीमाक्षेत्र के भीतर इसकी उत्पत्ति होती है , यहींनिवास और संवर्धन होता है । अतः विश्यना द्वारा यहीं इसका उन्मूलन किया जा सकता है देखना यह है कि बाहर के आलंबन ने अपने भीतर क्या खट पट शुरू कर दी । आंख कान, नाक, जीभ और त्वचा पर रूप , शब्द गंध, रस और स्पर्श का संपर्क होते ही यानी प्रथम आघात लगते ही अत्यंत सूक्ष्म स्तर पर तत्संबंधित इंद्रिय दरवाजे पर और फिर सारे षरीर पर प्रकंपन होता हैं फस्स पच्चया वेदना स्पर्श होते हीं संवेदना होती है । जैसे कांसे के बर्तन को छू देने से उसमें झंकार की तरंगें उठती हैं इस प्रथम आघात के तुरंत बाद मानस का वह हिस्सा जिसे संज्ञा कहें याबुद्धि कहं वह अपने पूर्व अनुभव और याददाश्त के आधार पर इस आलंबन को पहचानता है ‘‘ यह पुरुष अथवा नारी का रूप , शब्द, गंध आदि है । और फिर उसका मूल्यांकन करता है ओह बहुत सुंदर है बहुत मधुर है । ऐसा करने पर शरीर पर होने वाली यह तरंगे प्रिय प्रतीत होने लगती हैं और मानस उनके प्रति राग रंजित हो कर उनमें डूबने लगता है । वेदना पच्चया तण्हा संवेदना से ही ( काम ) तृष्णा होती है । यही से वासना का दौर शुरू हो जाता है । बार बार रूप, शब्द गंध आदि संबंधित इंद्रियों से टकराते हैं , बार बार प्रिय मूल्यांकन होता है बार बार प्रतिक्रिया स्वरूप वासना के संस्कार बनते हैं । यों क्षण प्रतिक्षण एक के बाद एक वासना के संस्कार बनते बनते पत्थर की लकीर जैसे गहरे हो जाते हैं जब रूप, शब्द, गंध, रस आदि बाहर आलंबन प्रत्यक्षतः आंख, कान नाक आदि इंद्रिय द्वारों से संपर्क करना बंद कर देते हैं तो छठी इंद्रिय का दरवाजा खुल जाता है , अब मन की इंद्रिय पर पूर्व अनुभूत रूप, शब्द, गंध आदि के आंलबन कल्पना और चिंतन के रूप में टकराने लगते हैं, फिर वही क्रम चल पड़ता है । आघात से प्रकंपन का होना , फिर प्रिय मूल्यांकन, फिर संवेदना, फिर प्रतिक्रिया स्वरूप वासना के संस्कारों की उत्पत्ति । क्षण प्रतिक्षण चिंतन का आंलबन चित्तधारा से टकराता रहता है औरक्षण प्रतिक्षण वासना का संस्कार पैदा होता रहता है । यह क्रम जितनी देर चलता है , वासना उतनी बलवान होती जाती है । मन पर उमड़ती हुई यह तीव्र वासना वाणी और शरीर पर प्रकट कोने के लिए मचल उठती है । सारा का सारा चित्त वासना के प्रवाह में आमूल चूल डूब जाता है । वासना में डूबें हुए व्यक्ति की सति याने स्मृति ( यहां स्मृति का अर्थ याददाश्त नहीं है । ) यानि जागरूकता बनी रहती है वासना व्यथित व्यक्ति स्मृतिमान रहता है याने सजग रहता है । परंतु सजग रहता है केवल रूप, शब्द, गंध, रस, स्पर्श अथवा चिंतन के आलंबन के प्रति ही । इन छह में से किसी न किसी आलंबन पर उसका ध्यान लगा रहा है । यही आलंबन का ध्यान वासना को उद्दीप्त करता है । अतः स्मृति रहते हुए भी इसे सम्यक स्मृति याने सही स्मृति नहीं कहते । मिथ्या स्मृति कहते है, सति मुट्ठा कहते हैं इन छह आलंबनों में से कोई एक भी तत्संबंधित इद्रिय द्वार के संपर्क में आता है तो स्वानुभव का काम शुरू हो जाता है । संपर्क होते हं तरंग रूपी वेदना को होना, संज्ञा द्वारा मूल्यांकन करना, संवेदना का प्रिय लगना और प्रिय संवेदना का रसास्वादन करते हुए वासना के संस्कार की प्रतिक्रिया का आंरंभ होना, यह सब स्वानुभूति का क्षेत्र है । अतः सत्य का क्षेत्र है । इसके प्रति सजग रहे तो स्मृति सम्यक है। केवल मात्र आलंबन के प्रति सजग रहे आलंबन के स्पर्श का भी निरीक्षण न कर सके, उसके आगे की स्वानुभूतियां तो दूर रहीं, तो स्मृति मिथ्या ही हुई, क्योंकि गहरी अनुभूति वाल क्षेत्र भुलाया हुआ है ।
स्मृति याने जारूकता जब सम्पजज्ज से जुड़ती है तो सम्यक हो पाती है । साधक आतापी सम्पजानो सतिमा हो जाता है । इसी को विपश्यना कहते हैं । इसी को सतिपठ्टान कहते हैं याने सति का सम्यक रूप से स्वानुभूतिजन्य सत्य में प्रतिष्ठापित हो जाना । विपश्यी साधक यही करता हैं वह सत्यदर्शी होता है आत्मदर्शी होता है। आत्मदर्शी के माने जिसका कभी स्वयं अनुभव किया ही नहीं ऐसी सुनी सुनाई, पढ़ी पढ़ाई दार्शनिक मान्यता वाली कल्पित आत्मा का दर्शन करना नहीं । यहां आत्मदर्शन का अर्थ है स्वदर्शन । अनुभूतियों के स्तर पर अपने बारें में जिस जिस क्षण जो जो सच्चाई प्रकट हो उसे ही साक्षीभाव से देखना सत्यदर्शन है , स्वदर्शन है । आत्मदर्शन है । मुक्ति का सहज उपाय है । किसी कल्पना का ध्यान मन को कुछ देर के लिए भरमाए भले ही रखे पर विकार विमुक्त नहीं कर सकता । कोरे बौद्धिक अथवा भक्ति भावावेशमूलक मान्यताओं के दायरें बाहर निकल कर साधक अनुभूति के स्तर पर यथार्थ की भूमि पर कदम रखता है । जो सत्य है उसे केवल मान कर नहीं रह जाता उसे जानता है जनाति और प्रज्ञापूर्वक जानता है पजानाति । साक्षीभाव से तटस्थ भाव से बिना राग के, बिना द्वेष के बिना मोह के यथाभूतः जैसा है वैसा, उसके सत्य स्वभाव में, यथार्थ को जानता है । मात्र जानता है । कोई प्रतिक्रिया नहीं करता, न उसे दूर करने की न उसे रोके रखने की । केवल दर्शन, केवल ज्ञान यही है पजानाति ।
बाहर का आंलंबन चाहे जो हो , अपने भीतर कामवासना जागी तो बाहर के आलंबन को गौण मानकर अपने भीतर की अनुभूतिजन्य सच्चाई को जानने का अभ्यास साधक शुरू कर देता है । सन्तं वा अज्झत्तं कामच्छन्दं- जब भीतर कामतृष्णा है तो अत्थि मं अज्डद्यझत्तं कामच्छन्दोति पजानाति - मेरे भीतर कामवासना याने कामतृष्णा है यह प्रज्ञापूर्वक जानता है प्रज्ञापूर्वक इस माने में भी कि यह अनित्य स्वभाव वाली है अनंतकाल तक बनी रहने वाली नहीं । इस समझदारी के साथ तटस्थभाव बनाए रखता है । उसे दूर करने की जा भी कोशिश नहीं करता, अन्यथा दमन के एक अंत की ओर झुक जाएगा । और न हीं उसे वाणी और शरीर पर प्रकट कोने की छूट देता हैं अन्यथा आग में घी डालने वाले दूसरे अंत की ओर झुक जाएगा । उसके अनित्य सवभाव को समझते हुए केवल जानता है पजानाति । क्योंकि अब उसे बढ़ावा नहीं मिल रहा, इस सच्चाई को भी महज साक्षीभाव से प्रज्ञापूर्वक जान लेता हैं असंन्तं वाअज्झत्तं कामच्छन्दं - नहीं है भीतर कामछंद तो , नत्थि में अज्झत्तं कामच्छन्देति पजानाति - मेरे भीतर कामछंद नहीं हैं , इस सच्चाई को प्रज्ञा पूर्वक तटस्थभाव से जानता है । और क्योंकि विष्यना कर रहा है तो सतिमुट्ठा नहीं हुई , सतिपट्ठान का अभ्यासी है याने, अपने भीतर नामरूप याने चित्त और शरीर के प्रंपच को प्रज्ञापूर्व अनुभूति के स्तर पर जानने को काम कर रहा है । इसी को सति के साथ सम्पजञ्ञ को जोड़ना कहते हैं । शरीर चित्त का प्रपंच वेदनाओं के रूप में प्रकट होता है । साधक मानस पर जागी हुई संवेदनाओं को तटस्थभाव से देखत है । ये संवेदनांए अतंर्मन से जुड़ी रहती हैं अतः मन की उदीरणा शुरू हो जाती है । इन पूर्व संचित अनुत्पन्न कामवासनाओं का उत्पाद शुरू हो जाता है यथा च अनुप्पन्नस्स कामच्छन्दस्स उप्पादो होति तत्च पजानाति । और उदीर्ण हुई इस चिरसंचित कामवासना को भी साक्षीभाव से संवेदनाओं के स्तर पर देखते रहता है तो उन पुराने संस्करों की परत पर परत उतरते हुए उनकी निर्जरा होती जाती है , उनका क्षय होते जाता है । यथाच उप्पन्नस्स कामच्छन्दस्स पहानं होततिञ्च पजानाति - यों उदीरणा और निर्जरा होते होते प्रहाण क्षय होते होते एक समय ऐसा आता है, जब कि अंतर्मन की गहराई तक के कामतृश्णा के सारे संस्कार उखड जाते हैं उनका नाम लेख तक नहीं रहता । अब कोई कामवासना जागती हीं नहीं । न किसी वर्तमन के आलंबन के कारण और न कोई पुराने संग्रह में से । यथा च पहीनस्स काच्छन्दस्स आयतिं अनुप्पादो होति तञ्च पजानाति । साधक परम मुक्त अवस्था तक पहुँच जाता है ।
जो परिश्रम करे , वही इस मुक्त अवस्थात तक पहुँचे । किसी भी जाति का हो, वर्ण का हो, रंग रूप का हो , देश विदेश का हो, बोली भाषा का हो जो करे वही मुक्त हो। जो न करे उसे लाभ कैसे मिले भला । कोई कोई इसीलिए नहीं करता कि यह तो हमारी पंरपरागत दार्शनिक मान्यता के अनुकूल नहीं है हम क्यों करें । कोई कोई इसलिए नहीं करता कि यह हमारी मान्यता कितनी महान है । इस गर्व गुमान में ही संतुष्टि कर लेता है । मान्यताओं में उलझे हुए लोग विपश्यना नहीं कर सकते , इससे लाभान्वित नहीं तो सकते । करें तो लाभान्वित होंगे ही । ।
अधिक जानकारी के लिए देखें साइट www.dhamma.org

Saturday, November 2, 2019

बाबा साहब भीम राव अम्बेडकर का स्वप्न पूरा होगा ही - व‍िपश्यनाचार्य श्री सत्यनारायण गोयन्का द्वारा द‍िया गया प्रवचन

             शिवाजी पार्क 2005
          परम आदरणीय भिक्षु संघ,  भारत रत्न बाबा साहब के श्रृद्धालु अनुयायियों आज के इस महत्वपूर्ण अवसर पर बाबा साहब को याद करना स्वाभाविक है । सदियों में कोई एक ऐसा युग पुरूष पैदा होता है जो कोई बहुत बड़ा लोक कल्याण करता है । बाबा साहब ऐसे ही एक युगपुरूष हुए । जिस समय समाज का अधःपतन हो जाता है सामाजिक व्यवस्था दूषित हो जाती है, धर्म का नाश होता है, धर्म की हानि होती  है ग्लानि होती है, भगवान बुद्ध के समय भी ऐसा ही हुआ, एक ओर लोग स्वर्ग में जाने की आकाक्षां के लिए मूक पशुओं की बलि देते थे यही अपने आप बहुत बड़े अधर्म की बात थी और दूसरी समाज में ऐसी गलत व्यवस्था  चल पड़ी थी कि एक आदमी को केवल  जन्म के कारण ऊंचा माना जाए और दूसरा नीचा माना जाए । एक आदमी कितना भी पतित क्यों न हो कितना भी दुराचारी क्यों न हो अमुक मां के पेट से जन्मा हो तो पूज्य है दूसरा कितना भी सज्जन क्यों न हो कितना भी धर्माचारी क्यों न हो अमुक मां के पेट से जन्मा है तो श्रेष्ठ नहीं है ।   यह मान्यता लोक में फैल रही थी कि विप्र है न फिर कितना भी पतित क्यो न हो फिर पर श्रेष्ठ है । क्षूद्र है तो कितना भी जितेन्द्रिय क्यो न हो फिर भी श्रेष्ठ नहीं है । धर्म का अवमूल्यन हो गया था । मां की कोख महत्वपूर्ण हो गयी बहुत बुरी व्यवस्था थी । भगवान ने इस व्यवस्था के खिलाफ आवाज उठाई । न जच्चा वसला होति न जच्चा होति बाहमिनो । कम्मना वसला होति कम्मना होति बाहमिनो । जन्म से न कोई बाहृमण होता है न जन्म से कोई शूद्र होता है । कर्म से ब्राहृमण होता है और कर्म से ही शूद्र ।  यो  धर्म का उद्धार किया । शुद्ध धर्म को पुर्नस्थापित किया । एक और बुरी बात उन दिनों चलती थी देश में गुलामी प्रथा थी राजाओं, धनवानो, पुराहितों के घर में नौकर चाकर के साथ दास दासिया होती थी । ये गुलामी प्रथा भारत में उन दिनो फैली थी  । राजा किसी को प्रसन्न होकर देता तो कुछ दास दासियां भी देता । किसी पुरोहित को कुछ दास दासियां मिलती तो वो बेच देता । भगवान ने उसके विरूद्ध आवाज उठायी। गुलामी  प्रथा को बंद करने की आवाज उठायी । सम्यक आजीविका का उपदेश किया तो ये भी उसमें था किसी प्राणी का व्यापार नहीं करना चाहिए । क्रय विक्रय नहीं करना चाहिए । धीर धीरे ये प्रथा नष्ट होती चली गयी । आज भारत में यह प्रथा नहीं है । हर आदमी अपना मालिक खुद है अत्ता ही अत्तनों नाथों । हर व्यक्ति अपना मालिक खुद है । भगवान बुद्ध जाति पाति के बहुत बड़े विरोधी थे जन्म के कारण कोई बहुत बड़ा हो या छोटा हो ये समाज के लिए कलंक है । इसी प्रकार उन्होनें सम्प्रदायवाद का विरोध किया ।  धर्म ही प्रमुख है धीरे धीरे जातिवाद कमजोर हुआ । पशुओं की बलि  बंद हुई । पर सम्राट अशोक  के 50 वर्ष के बाद पुष्यमित्र शुंग नाम का राजा हुआ । उसके बाद धर्म का दमन होने लगा जातिवाद फिर प्रकट होने लगा । फिर  बाबा साहब अंबेडकर प्रकट हुए । जब धर्म का पतन हो गया था । जब मनुष्य को छूने से अपवित्र हो जाओंगे । किसी जानवर को छूते हो तो अपवित्र नही हाेगे,  पर मनुष्य को छूने से अपवित्र हो जाओगे । किसी मंदिर में जानवर घुस जाता है तो अपवित्र नहीं होता पर मानव घुस जाएगा तो अपवित्र हो जाएगा । कोई तालाब में जानवर पानी पी ले तो कोई बात नहीं पर कोई मनुष्य पानी पी ले तो अपवित्र । धर्म का का कितना बड़ा अधः पतन । बाबा साहब ने खूब अध्ययन किया भारत में ऐसा व्यक्ति  जिसने  अध्ययन किया खूब अध्ययन किया । किसी अन्य व्यक्ति ने भारत  में इतना अध्ययन नहीं किया । ये कालेज की पढ़ाई में डाक्ट्रेट लेना तो बड़ी बात है ही लेकिन उससे भी बड़ी बात दुनिया के जितमे भी धर्म सम्प्रदाय है सबका अध्ययन किया ।  तो 50 साल पहले कि भारत में या कहें क‍ि विश्व में एक ऐसी घटना घटी कि लाखो लोगो ने एक साथ बुद्धम शरणम धम्मं शरणं संघं शरणं गच्छामि कहा । जो सदियों से काम नहीं हुआ वो काम किया । इसके पीछे एक और इतिहास है उस इतिहास को भी समझ लेना चाहिए । भगवान बुद्ध के परिनिर्वाण के बाद जो उनके शिष्य थे उन्होंने देखा कि भगवान की शिक्षा में कुछ जुड़ने  ना पाए तो उन्होने 500 लोागो ने संगायन  किया । 50वर्ष बाद दूसरा संगायन किया । 250 साल बाद तीसरा संगायन हुआ तो  अशोक के गुरू मोगलीपुत्र तिस्स के नेतृत्व में हुआ।  जिसमें सबसे बड़ी बात यह हुई कि ये वाणी व ध्यान की शिक्षा भारत के पड़ोसी देशों  लाओस, कम्बोडिया, लंका थाइलेण्ड, म्यामार गयी । कितना बड़ा उपकार हुआ । अशोक के 50 वर्ष बाद ही धर्म को नष्ट किया जाने लगा और कुछ ही वर्षों  के बाद देश में इस विद्या  को सिखाने वाला कोई  आचार्य नहीं रहा । अगर पड़ोसी देशोे को न भेजी जाती तो भगवान की विद्या लुप्त हो गयी होती ।  मैं पड़ोसी देश में जन्मा हूंं बड़ा हुआ अपना आधा जीवन वहीं बिताया । वहां यह मान्यता कि भगवान बुद्ध के परिनिर्वाण के 2500 साल बाद एक एसी अवस्था आएगाी कि भारत में भगवान की शिक्षा का नामोनिशान नही होगा तब यह श‍िक्षा भारत मे आएगी । तब भारत में ऐसे पुण्यशाली लोग होगे जो भगवान की शिक्षा को स्वीकार करेगें । 1954 में 2500 वर्ष पूरे हुए  व 1955 मेें अगले 2500 वर्ष का शासन शुरू  हुआ  । बाबा साहब अध्ययन करते करते  बर्मा पहुंचेे । वहां कुछ लोगों की मान्यता थी कि अशोक ने जब सब देशो में धर्म भेजा तो स्वर्णभूमि ही  सहेज कर इस धर्म रत्न को रखेगी । और 2500 वर्ष पूरे होने पर जब भारत में इसकेा नामोनिशान नहीं रहेगा तब यह भारत में फिर लौट कर आएगी । बर्मा के लोग  प्रतीक्षा कर रहे थो कि कौन इसे लेकर जाएगा तब बाबा साहत लेकर आए  । 1954 में 6वा संगा यन हुआ । भारत में तो तीन संगायन होकर रह गए ।   4वां लंका में हुआ 5वां बर्मा में हुआ 6वा भी बर्मा में हुआं ।  ये 2500 पूरे होनेपर हुआ । बाबा साहब उसमें शामिल हुए । पहले ही उनका मानस बुद्ध की शिक्षा के प्रति श्रृद्धावान था । वो मेरे एक परम मित्र डा० सोनी की घर ठहरे । वहीं निर्णय किया मुझको बुद्ध की शिक्षा ग्रहण करनी है। 1956 में लाखों की संख्या में अपने अनुयायियों की सभा में दीक्षा दिलाते है । बाबा ने धर्म का विगुल बजाया ओर एक कामना प्रकट किया जब मैं सुनता हूं आह्लाद होता है दो बाते कीं । केवल  नाम से ही बुद्धानुयायी  नहीं बनना है तुम्हे बुद्ध की शिक्षा को धारण करना है केवल नाम के लिए बौद्ध कहने लगोगे तो कुछ नही बनेगा । दूसरी बात कि सारे भारत में  शिक्षा फैलनी चाहिए तो समस्या का सही समाधान होगा । तो सारे देश का कल्याण होगा । पीछे इतिहास चला आ रहा  है कि भारत जाएगी तो पूरे  विश्व मे फैलेगीी  । थोड़ से समय में ही  डंका बजा दिया शंख बजा दिया । पर इसके बाद थोडे से समय  में ही उनका अंत हो गया । समाज के एक वर्ग को उनका अनुयायी बनाने से सारे भारत  मे कैसे फैलेगी   ?    अशोक के समय सारे भारत मे  फैली। पर ये शिक्षा की महानता है कि फैलेगी । अशोक अपने शिलालेख में कहता है कि मुझसे पहले इसे देश में  बहुत राजा हुए सब चाहते थे सब शांति से रहे । पर सब असफल हुए । पर मैं सफल हुआ क्यो हुआ?  झूठ नहीं है शिलालेख में लिखा है । उस व्यक्ति का एक इतिहास पहले चंड स्वभाव का , बड़ा अत्याचारी । अपना साम्राज्य फैलाने के लिए खूब अत्याचार कियए । किसी संत के सम्पर्क में आया चंडाशाेक से धर्माशेाक हो गया । जल्दी बात समझ मे आ गयी कि भगवान की शिक्षा बहुत अच्छी है । गहराई से उसे समझने की लिए विपश्यना की । भगवान ने कोरे उपदेश नहीं दिए । उनक उपदेशों को अपने जीवन के उतारने के लिए विपश्यना दी  । उन दिनों में राजस्थान के बैराठ में उसका केन्द्र था । पाटलीपुत्र से 300 दिन के लिए बैराठ जाता है  और विपश्यना की । जैसे जैसे विपश्यना की गहराइयों में जाता है उसके मन में यही भाव आता है एहि पस्सिको आओ तुम भी करके देखो । इस सम्राट में जागा तुम भी करके देखो । राजा की संतान होती है प्रजा । अरे इनको यह विपश्यना मिल जाए तो सम्दाय में झगड़ों से दूर हो जाएगें । क्यों सफल हुआ एक तो उसने मंत्री बनाए । हजारोंं अमात्य बनाए उनका काम था देश में घूम घूम कर देश में बुद्ध की शिक्षा को फैलाना ।  पर उससे बड़ी बात यह थी कि मैने लोगों को विपश्यना सिखायी । बाबा साहब का संकल्प कि बुद्ध की शिक्षा सारे भारत में फैलेगी तो पूरा होकर रहेगाा । कैसे फैलेगी ?  उस संत की बात भविष्यवाणी को पूरा होना है । मैं बहुत कट्टर सनातनी घर में  जन्मा । घर में माना जाता था कि भगवान बुद्ध विष्णु के अवतार है पर  भूल कर भी उनकी शिक्षा के पास नहीं  जाना । बुद्ध की शिक्षा से दूर रहो । 31 साल की उम्र में संगायन हो  रहा था तो उससे मुझे जोड़ दिया । पहले तो मैं समझ ही नहीं पाया क‍ि जब  मैं भगवान बुद्ध शिक्षा काेे स्वीकार नहीं करता तो  मुझे क्यो जोड़ा गया  ?  पर फिर पता चला कि  वहां            शाकाहारी लोग होगें उनकी जिम्मेदारी मुझे दी गयी  । सौभाग्य की बात हुई क‍ि धर्म के सम्पर्क में  आया । एक वर्ष बीतते बीतते २५००वे वर्ष में विपश्यना मिल गयाी । जीवन बदल गया । अब तो बुुद्ध की वाणी जीवन में उतार कर देखी । कितनी महान है कितना शुद्ध है धर्म ।  जातिवाद का नामोनिशान नहीं सम्प्रदायवाद का निशान नहीं । उन्होंने अपनी शिक्षा को धर्म कहा । विपश्यना यही कराती है व्यक्ति को धार्मिक बनाती है । सत्य धर्म सद्धर्म  स‍िखाती है ।                क्या सदधर्म जो सच्चाई तुम्हारी अनूभूति पर उतर रही है वही धर्म है । ये दार्शनिक मान्यता ये मान्यता ये नहीं ।  सच्चाई जो अनूभूति पर उतरे । और देा शब्द दिए। केवल परिपूर्ण केवल परिशुद्धंम  । केवल परिपूर्णम इसके कुछ जोड़ना नहीं । उनकी शिक्षा में कुछ भी जोड़ना दोष की बात है । बहुत बड़े दोष की बात है । आदि में कल्याणकारी मध्य में कल्याणकारी अंत में कल्याणकारी । शील पालन करो तो ही कल्याण होना शुरू हो गया मन को वश में करनेके लिए समाधि का अभ्यास करों तो और कल्याण हो गया । मन को निर्मल करने में प्रज्ञा का अभ्यास करो तो कल्याण हो ही गया  । कुछ जोड़ोगो तो बिगाड़ दोगे । कुछ निकालने के लिए है ही नहीं । इसीलिए मैं भगवान की शिक्षा को शुद्ध धर्म कहता हूं । उसमें कुछ ऐसा है ही नहीं  जिसे अशुद्ध कह सकेें ।  बाबा साहब ने जो डंका बजाया वो उसे आगे नहीं ले जा सके तो उस काम को विपश्यना ने आगे बढ़ाया ।  तो बुद्ध का धर्म थोड़े से लोगों तक सीमित नहीं सबका धर्म है । विपश्यना के शिविर में कोई एसा सम्प्रदाय नहीं जिसके अनुयायी नहीं आते हो सदाचार का कौन विरोध करेगा ?  यहां तो सदाचार सिखाया जाता है और सदाचार के लिए मन को वश में करना होता है । सदाचार का भला  कौन विराध करेगा । सांस आ रहा हे सांस जा रहा है इस पर कोई नियंत्रण नहीं  नहीं करना । कोई इमेज नहीं । कोई शब्द नहीं । अगर कोई शब्द जोड दे ।   साथ साथ बुद्ध बुद्ध कहेंगे तो राम वाले कहेगें कि हम तो राम राम कहेगें , अल्लाह वाले कहेगें हम तो अल्लाह अल्लाह कहेंंगें । जब सांस आता है तो नहीं कह सकते कि हिन्दू सांंस है इसीलिए धर्म सबके लिए है । यह साधना चित्त को देखना सिखाती है वासना को देखना सिखाती है ।  जो विकार जागा उसे देख रहे हैं ।  जब क्रोध आता है तो उस पर  लेबल कैसे लगाएगें कि  यह हिन्दू क्राेेध है यह व्याकुलता हिन्दू है कि मुस्लिम है ।  धर्म नियामता है जब भी मन को मैला करोगे तो दण्ड मिलेगा ही कोई करे । हिन्दू मुस्लिम कोई करे । विकारों से मुक्ति पाओगे चित्त विकारो से मुक्त हुआ तो प्यार जागता है । तो इतना प्यार जागता है इतनी करुणा जागती है तो इसे क्या कहोगे ? दुनिया भर के सभी सम्प्रदायों के लोग इसे सीखने आते है । क्रिश्चियन मिशनरी ये देखने आए कि मैं उनके अनुयायियों को बिगाड़ तो नहीं रहा । तो तीन मिशनरी और 2 मदर  सुपीरियर आए । 10 वें दिन मदर सुपीरियर कहती है यू आर टीचिंग क्रिश्चिएनिटी इन द नेम आफ बुद्धा ।   धर्म सबका होता है । सबके दुख दूर करता है । किसी को अपने बाड़े में नहीं बांधता । क‍िसी ने भगवान के शिष्य से पूछा आपका क्या सम्प्रदाय है । तो कहता है शील सदाचार ही हमारा सम्प्रदाय है । जो पालन करने लगे वो ही  हमारे पाले आ गया । बुद्ध ने धर्म को प्रमुख बनाया । भारत मे यही फैलना चाहिए कि बुद्ध की शिक्षा केवल एक सम्प्रदाय के लिए नहीं सबके लिए है तब बाबा साहब का सपना पूरा होगा । 
 सपना पूरा हो रहा है । कोई आकर देखे विपश्यना शिविर में अलग अलग जाति के लोग  बैठे है अलग अलग सम्प्रदाय के लोग  बैठे है लोग एक साथ रहते है । भोजन के लिए जाते है । उसी पंक्ति में ऊंची जाति वाला खड़ा है पीछे कोई तथाकथित नीची जाति का खड़ा है  । उसी में सेक्रेटरी खड़ा है उसी  में चपरासी है । उसी में करोड़पति उसी में ब‍िना पैसे वाला । उसी में अनपढ़ खड़ा है तो उसी में  प्रोफेसर । कोई फर्क नहीं । और आज इसीलिए धीरेे धीरे सारे भारत में ही नहीं पूरे विश्व में फैल रहा है । विश्व के कोने कोने में इसके केन्द्र है । केन्द्र का मतलब यह कि 10 दिन वहीं रहना होता है ।  100 से अधिक केन्द्र भारत में और पूरे  विश्व में हो गए हैं ।  बाबा साहब का यह स्वप्न पूरे होने की शुरूवात हो गयी हे । जो अपने आप को बाबा का अनुयायी कहता है जो बुद्ध का अनुयायीी कहता है वो विपश्यना करके ही धर्म को अपने जीवन मेें उतार सकेगा । जो अपने को अनुयायी नहीं कहते उनके लिए भी कल्याणकारी । जो अनुयायी कहते हैं  उनके लिए भी कल्याणकारी । यह विशेषता है बुद्ध के धर्म की । यही सपना बाबा साहब का कि  सारा देश बुद्ध की शिक्षा के रंग मे रंगे । मुझे भविष्य दीखता है कि एक सदी भी नहीं बीतने पाएगी कि सारा भारत बुद्ध की शिक्षा के रंग में रंग जाएगा ।
 यह जाति पाति का भेद भाव सम्प्रदयावाद का भेद सामाप्त हो जाएगा  । ये कोढ़ हैं ।  दोनोंं समाप्त होगे । बुद्ध की शिक्षा से होंगे । बाबा साहब के स्वप्न पूरे होगे  । भगवान की शिक्षा ऐसी है जो सबका मंगल करती है सबका कल्याण करती है । कोई हो मुस्लिम हो।  मुस्लिम देशों में में शिविर लगते है । एक देश में तो  केन्द्र भी है । अब तक कोई 5000 ईसाई पादरी और साध्वी आए । और आए जा रहे है उनको अपना सा लगता है । ऐसे ही मौलवी जब सेंटर नहीं था मस्जिद में, गिरजाघर में मंदिर में शिविर लगे । जब केन्द्र बन गया तो सब तरह के लोगो के आचार्य तैयार किए ।  मुस्लिम ईयाई यहूदी सिख । एक बात देखकर मन प्रसन्न होता है जिस देश में लोगों को अस्पृश्य कहकर दुत्कारा गया हो  अब विपश्यना मे कुछ लोग  विपश्यना  में कुछ इतने आगे बढ़ गए कि विपश्यना के आचार्य बन गए । एक अस्पर्शय कही जानेवाली जाति का व्यक्ति गद्दी पर बैठा है और सामने से साारे लोग उनके चरणों के बैठकर धर्म सीखते है । ये एक ऐसा दृश्य है कि जो किसी को भी प्रसन्न करता है जिसे तुम अछूत कहते थे कि आज उसके चरणो में मे बैठकर धर्म को सीख रहे हो क्योकि वो धर्म का प्रतीक है। अब उसके शिविर मे सब जातियों के लोग  बैठते है तो भगवान का धर्म सबको अच्छा आदमी बनाता है।  सत्य के सहारे सहारे चित्त को निर्मल करते करते दुख से  पार हो जाते हैं । समता का राज्य स्थापित होता है । बाबा साहब ने लाखों की संख्या में लोगो को गयी गुजरी अवस्था से ऊपर उठाया । एक युगपुरूष ही ऐसा कर सकता है । उन्होने देश का संविधान बनाया जिसने मनुस्मृति के सिद्धान्त को फाड़ कर फैंक दिया । और सारे देश से उसे स्वीकार किया । सरकार इसे समझती है पर सरकार का कानून सब जगह लागू नहीं हो सकता।   समाज के लोगों  में समानता का भाव आना चाहिए । एक दिन ऐसा आएगा कि जब लोग सोचेंगे कि कभी हमारे देश में ऐसी गंदगी थी । तब वो केवल एक इतिहास याद करने के लिए रह जाएगा । तब बाबा साहब का स्वप्न पूरा होगा  । दो बात का प्रण लें । एक बुद्ध की शिक्षा को जीवन में उतारना है  । पंचशील का  पालन करना है । तो मै आज इस धर्म सभा में  एक निवेदन करता हूं कि एक शील तो पालन करो । पांच का करो अच्छा है पर  कम से कम एक का तो पालन करो ।  सुरा मेरय पमादट्ठानं  वेरमणि । नशे पते का सेवन नहीं करेंगे  । यह प्रतिज्ञा करके जाएं ।  इस धर्म सभा में आए हैं । भिक्षुओ को बुलाया है मुझे बुलाया है तो यह प्रतिज्ञा करें कि हम नशे पते का पालन नहीं करेगें । जो इस नशे पते के शील को तोड़ेगा तो वह और शील भी तोड़ता ही चला जाएगा । और यदि इस शील का पालन करेगा तो बाकियों का पालन आसान हो जाएगा । 
   दूसरी ये कि इसको एक समुदाय तक सीमित न रखें । ये सबका है । एक का नहीं । सबके लिए खुला है । सारे विश्व में धर्म की गंगा बहे, तो सही माने में कल्याण होगा । 
                                                                      भवतु सब्बं मंगलम