Monday, June 29, 2015

विपश्यना: मेरी आध्यात्मिक यात्रा - मोहम्मद आरिफ जोइया



    सन् 1974 में मैं आरोग्य मंदिर, गोरखपुर की प्राकृतिक चिकित्सा के संपर्क में आया  और उससे अनेक प्रकार से लाभान्वित हुआ। इन्हीं दिनों स्थानीय शाला की लाइब्रेरी के अनेक आध्यात्मिक ग्रंथ पढ़ गया। साथियों से अनेक धार्मिक चर्चाएं कीं । इन सब ने मुझे जगाया,  चेताया तो, लेकिन मेरी प्यास को बुझाया नहीं, बल्कि और ज्यादा तड़पा दिया। मैं इनका शुक्रगुजार हुआ। पर अब मुझे ऐसा गुरू चाहिए था जो सचमुच सत्य का अनुभव करा सके। मैं इन धर्मशास्त्रों में छपी हुई निर्जीव बातों (शब्दों) को अपने हृदय में एक जीवंत शांति एवं शक्ति के रूप में साक्षात्कार करना चाहता था। केवल श्रुतिविलास और बुद्धि‍विलास से ही संतुष्ट न होकर स्वानुभूतिजन्य सत्य का स्वयं साक्षात्कार करना चाहता था।
    मंदिर, मस्जिद, चैत्य, गुरूद्वारा तथा समस्त धर्मग्रंथ मेरे मानस से छिटक गये। मन एक अतृप्त प्यास एवं उत्कंठा से भरा उठा। एक खामोश असंतोष जिन्दगी पर हावी हो गया।
    ऐसी घायल अवस्था में मैंने डा. विट्लदासजी मोदी से अपनी आध्यात्मिक जिज्ञासा का खुलासा किया कि मुझे समाधान चाहिए। उन्होंने एक विपश्यना ध्यान शि‍विर में भाग लेने की सलाह दी। साथ में अपने विपश्यना संबंधी अनुभव की एक छपी हुई प्रति भी दी। पढ़ा, समझा; परंतु घबरा उठा। ‘‘अरे, यह तो बौद्धों (बुतों) का धर्म है! काफिरों का धर्म! ये तो आत्मा परमात्मा को ही नहीं मानते। भला ये क्या सिखायेंगे? मैं ठहरा मुसलमान! ना बाबा, ये अजान! यह गुनाह तो मुझसे नहीं होगा!’’ मगर फिर दिल ने कहा - गुरूदेव मोदीजी की आज्ञा ही शि‍रोधार्य होनी चाहिए। भला वे मेरा अमंगल क्यों चाहने लगे! वे जो कुछ कह रहे हैं, जरूर मेरे कल्याणार्थ ही होगा। चलो आजमा कर तो देखें।
   हैदराबाद में विपश्यना शि‍विर 4-2-78 को लग रहा था। मैं एक अनजाने सफ़र की ओर अकेला चल पड़ा। रास्ता ही तीन दिन खा गया। हैदराबाद के संपर्क-स्थान से मालूम हुआ कि शि‍विरार्थी तो कल ही शि‍विर-स्थल को प्रस्थान कर चुके हैं। किसी तरह टैक्सी से मैं हैदराबाद से 12 कि.मी. दूर अंगूरो के बागों के करीब शि‍विर-स्थल पर पहुंच गया। शांत जंगल जैसे स्थान में विपश्यना अंतर्राष्ट्रीय साधना केंद्र।
   व्यवस्थापक श्री बचुभाई ने बड़े ही स्नेह के साथ मेरा स्वागत किया। बोले,‘‘आरिफभाई! तुम एक दिन लेट हो गये हो। पर गुरूजी तुम्हें शि‍विर में ले लेंगे, ऐसी मुझे उम्मीद है। चिंता मत करो। जाओ, सामान रखो, नहा लो, नाश्ता आदि कर लो। मैं गुरूजी से तुम्हारे बारे में बात करता हूं। फिर एडमीशन फार्म भरना।’’
      मैं बच्चुभाई के निर्मल प्रेमपूर्ण व्यवहार से पूर्ण रूप से आश्वस्त होकर नहाने चला गया। नाश्ते के बाद इधर-उधर मौन धारण किये साधकों को देखने लगा। मुझे अनुभव हुआ कि जब से मैंने इस आश्रम की तपोभूमि पर पांव रखा है, तभी से मुझे हल्का-हल्का बुखार चढ़ आया है। यह किसी अज्ञात भय का ज्वर था। मेरे अहंकार को लगा कि अब उसकी बलि चढ़ने बाली है। और मैं इसके लिए तैयार था। गुरूजी ने मुझे बुलाया। मैं गया। नमस्कार किया, मुस्कराया। देखा, वे अपनी पत्नी सहित सुंदर-सी कुर्सियों पर विराजमान है। लगा जैसे कोई वैज्ञानिक या साहित्यकार या डाक्टर हों।
आओ बैठो!
मैं फर्श की दरी पर एक किनारे बैठ गया। मुस्कराने लगा।
क्या काम करते हो?”
जी , वो फिजिकल टीचर हूं , उदासर (राजस्थान) में।
हूं, क्या तकलीफ है ?”
जी, वो बोलने में अटकता हूं । हकलाहट है।
हां, ठी‍क हो जायगी। शाम को दीक्षा होगी । तब तक सांस को देखते रहो, जानते रहो।
जी, बहुत अच्छा ।
अच्छा, जाओ।मुस्कराते हुए शब्द गूंजे।
मैं नमस्कार कर मुस्कराता हुआ हॉल के बाहर आ गया। सोचने लगा-`यार! ये अच्छे गुरू मिले । खुद ही सांसारिक जीव हैं। अरे ऐसे भी कहीं कोई गुरूजी होते हैं? सपत्नी? ग़़ृहस्थ ? दाढ़ी-मूंछ, क्लीन-शेव! छापा-तिलक, जटा-वटा और भगवा वस्त्र तो हैं ही नहीं इनके। आधी बाहों का सफेद टेरीकॉट का शर्ट और रंगीन चैक की लुंगी। अरे , कम से कम खादीधारी तो होते। एकदम आधुनिक, सामान्य! भला ये क्या ध्यान-व्यान सिखायेंगे? खैर, चलो अब आ ही गये हैं तो देख लेते हैं। आजमा लेते हैं।
     थोड़ी देर बाद हॉल में सैंकड़ों साधकों के साथ गोयन्काजी के मार्गदर्शन में सांस को देखने, जानने और उसके स्पर्श को महसूस करने का कार्य आरंभ किया तो  मेरे अंदर से एक मौन आलाप बज उठा- अरे, इसी  चीज की तो खोज थी! मिल गयी! खूब करो! एक दिन  लेट भी हो गये हो, अत: एक क्षण भी व्यर्थ नहीं खोना हैं।मै बड़ी उत्सुकता से सांस के ध्यान में जुट गया।
    शाम को दीक्षा दी गयी । गोयन्काजी ने कहा , “मेरे पीछे-पीछे पालि भाषा में बोलना।मैं बोलता गया। हत्या, चोरी, व्यभिचार, झूठ तथा नशे से शिविर के दौरान विरत रहना होगा। ये पंचशील मुझे पंसद आये। परंतु साथ-साथ यह भी बोलना था- बुद्ध सरणं गच्छामि , धम्मं सरणं गच्छामि, संघम् सरणं गच्छामि !मैं यह बोलने को तो बोल गया पर मन कुछ देर कुलबुलाता रहा- `देखो, इन लोगों ने लुटिया ही डुबो दी। अब बौद्ध बन कर घूमना समाज में!
        किसी तरह मन को समझा कर फिर सांस के कार्य में लग गया। फिर वही विचारों की खिचड़ी चली। पर जरा देर सांस का ध्यान और चला तो ये सारे जंजाल धीरे-धीरे स्वत: ही क्षीण होकर नष्ट होने लगे। अब इन विचारों के चिंतन की इच्छा नहीं होती थी। मैं अविचार (शांति) की ओर बढ़ रहा था। छुट्टी के समय खाने- पाने आदि से निवृत्त होकर ध्यान में ही लगा रहता । एक दिन लेट हो गया हूं। पता नहीं दूसरे साधक अब तक कितने आगे निकल गये होंगे।क क्षतिपूर्ति की भावना से मैं जुट गया।
                   बंद आंखो के सामने मानस के टेलीविजन का पर्दा चमकने लगा। स्पष्ट देखता कि मेरे मानस के छिपे हुए सुप्त विकार सामने आते जा रहे थे। मेरे ही मानस की एक गंदी अस्त-व्यस्त वीडियो फिल्म चल रही थी। मन में ऐसे-ऐसे विकृत चित्रों को देखता कि वमन की इच्छा होती। पर समझता भी गया कि बड़ा कल्याण हो रहा हैं। विकार ही तो निकल रहे हैं । अच्छा ही है।
         चौथे दिन विपश्यना सिखायी गयी। दिल से एक नयी आवाज उठी-‘‘अरे, यह क्रिया तो अपनी कभी की हुई है। बड़ी सरल और जानी पहचानी-सी है यह तो!और मैं ज्ञात से अज्ञात, स्थूल से सूक्ष्म की ओर बढ़ता जा रहा था।
        सातवें दि‍न मैंने देखा कि मेरी हथेलियों तथा पेशाब का वर्ण एकदम पीला हो गया है। जरा चिंता हुई। पर प्राकृति‍क चिकित्सा की समझ भी थी कि चलो ठीक ही है। विजातीय द्रव्य का निष्कासन हो रहा है।  
           इसी शाम हमेशा की तरह प्रवचन हुआ। मन बड़ा हल्का और शांत। शरीर में कही कोई छोटा-सा जेनरेटर घर्र-घर्र की धीमी आवाज में प्रारंभ हो गया है। गोयन्काजी प्रवचन दे रहे हैं। मैं ज्यों-ज्यों उनको ध्यान की एकाग्रता से खुली आंखो देखता त्यों-त्यों उनका शरीर आ‍काशीय तत्व में लहराते-लहराते, धॅुधलाते-धॅुधलाते गायब होने लगता। और मेरे द्वारा फिर से ध्यानपूर्वक देखने पर वे वैसे ही सदेह प्रवचन देते, बैठे मिलते। ऐसा प्रयोग मैंने कई बार किया और निश्चि‍त किया कि यह कोई भ्रम या सम्मोहन या चमत्कार नहीं है, बल्क‍ि मेरे अपने ध्यान’ (समाधि‍) में होने का ही प्रभाव है। तब मैं समझा कि जगत को स्वप्न क्योंकर कहा गया हैं कि जगत अनि‍त्य कैसे है जाना कि इस इंद्रिय जगत के अलावा भी कोई इंद्रि‍यातीत अनुभूति है, कोर्इ भवातीत अवस्था है।
      ध्यान की विधि‍ इतनी सरल कि कोई बच्चा भी या अनपढ़ देहाती भी सहज रूप से कर सके। सहज स्वाभाविक सांस का आंख बंद कर के मात्र निरीक्षण करना, उसकी सतत जानकारी रखना कि सांस आ रहा है, जा रहा है और कहीं छू भी रहा है। सांस को देखते-देखते ही मन का साक्षीभाव, द्रष्टाभाव स्वत: ही पुष्ट होने लगता है। फिर इसी साक्षीभाव से सिर के सिरे की वास्तविक संवेदनाओं से शुरू करके सारे शरीर में होने वाली संवेदनाओं का क्रम बद्ध मात्र निरीक्षण किया जाता है। संवेदना जो कि अप्रिय भी होती है और प्रिय भी होती है -दोनों ही संवेदनाओं को समता भाव से जानना होता है और इसी क्रिया को बार-बार करने से मन में समता वा शांत एकाग्रता की शक्त‍ि बढ़ने लगती है।  
     रात को सोया तो एक भयंकर घटना घटी। आधी रात का समय। देखा एक भयानक विशाल राक्षस ने मेरी गर्दन पकड़ ली है दोनों हाथों से। और चीख-चीख कर मुझे अपने सिर के उपर चारों ओर हवा में घुमाने लगा-‘‘दुष्ट आत्मा। तू मुझे मारने के लिए यहां इस आश्रम में लाया है ले, अभी मजा चखाता हूं तुझे’’ और उसने बड़े वेग के साथ मुझे धरती पर दूर पटक दिया। और साथ-साथ गोयन्काजी की प्यारभरी आवाज भी सुनाई पड़ रही थी – ‘‘चिंता मत करो बेटे, आ जाओ मेरे पास घबराओ नहीं, आ जाओ’’ और मैं घबराकर चौंक कर उठा बैठा। आंखे फाड़-फाड़ कर देखा तो पास में विदेशी साधक साथी नींद मे सोये पड़े हैं। मैं जरा देर में समझ गया कि यह एक डरावना सपना था। मन का ही खेल है यह। उसी की खुराफात है कि चल  यहां से, किसी तरह बच कर निकल चल। विकारों की मृत्यु हो रही है। यह सब इन्हीं का उपद्रव है। मैं कमरे के बाहर आ गया। देखता हूं, बल्ब जल रहे हैं। पेड़ खड़े है। डालियां और पत्ते मिल कर झूमझूम कर नाच-गा रहे हैं। तालियां बजा कर हॅंस रहे हैं। मैं इधर-उधर यूं ही घूमने लगा।– यह सब अचेतन मन की करतूत है। समझता हूं मैं सब । पर मैं अब पूरा शि‍विर करके ही लौटूंगा। मैं मुस्कराता हुआ फिर सोने चल दिया । लेटे-लेटे ध्यान करता-‍करता सो गया।
        सवेरा हुआ। हॉल में ध्यान होने लगा। दोपहर भोजन करने बैठा तो एक नयी अनुभूति ने भौंचक्का कर डाला । देखा कि शरीर हिल-डुल रहा है। हाथ जैसे किसी और के हों। खाना खाया जा रहा है। बस, स्थि‍र, निर्लिप्त, तटस्थ साक्षीभाव । ओह गौतम बुद्ध  क्या आपने यही अनोखी और विस्मयकारी विद्या खोज निकाली थी यह अनमोल खजाना लोगों को बांटते रहे सिखाते रहे लोगों को यही पावन कला। और आज भी यह विद्या फिर से लोगों का कल्याण करने को उपस्थि‍त हो गयी है। धन्य हैं प्रभु आप आप के महान कारूणि‍क चरणों में बारंबार सादर प्रणाम अनंत वंदना। अब समझा कि बुद्धं सरणं गच्छामिका अर्थ अपनी ही बो‍धि‍ की शरण जाना होता है, न कि किसी सिद्धार्थ गौतम की शरण में। धम्मं सरणं गच्छामिका अर्थ अपने (मानव के) मूल स्वभाव में स्थापित होने की किया में जाना है, न कि किसी संप्रदाय में दीक्षि‍त होना। ऐसे ही म् सरणं गच्छामिका अर्थ है उन सभी व्यक्ति‍यों की शरण में जाना है जो कि धर्म में पूर्ण रूप से स्थापित हो गये हैं चाहे वह किसी भी जाति, वर्ण या देश के क्यों न हों’’
      इसी पावन क्षण से कांटो और आंसुओ से भरी मेरी जिंदगी की किताब से मृत्यु नामक शब्द बर्फ की डली के समान पिघल कर बह गया, सूख गया और इसी हवा में घुल गया, मिल गया। अरे कोर्इ भी तो प्राणी मरता नहीं। मृत्यु असंभव है। अपने-अपने कर्मों के मुताबिक सभी की यात्रा चलती रहती है। और इसी यात्रा का अंतिम पड़ाव, मंजिल निर्माण है। अब समझा कि अपना धर्म क्या होता है और पराया धर्म क्या होता हैं। आत्मा-साक्षात्कार बिना वा चित्त को निर्मल करने के तप बिना, जीवन पराये धर्म(पशुधर्म) ही में तो जिया जाता हैं। अपने मूल नैसर्गिक स्वभाव में जीना ही तो स्वधर्म कहलाता है।
   नौवें-दसवें दिन प्राणि‍मात्र के प्रति मंगल मैत्री की नयी साधना सिखायी गयी। इस साधना ने मुझे प्रेम वा मैत्री से भरपूर खूब-खूब रूलाया।
   शि‍विर के बाहर निकला तो लगा कि इस पृथ्वी पर मेरा कोर्इ शत्रु नहीं है। सभी मेरे अपने सगे हैं। चित्त अणु-अणु के प्रति मैत्री, मुदिता, करूणा एवं उपेक्षा से अभि‍भू‍त हो उठा। सोचता हूं मैने किसी पूर्व जन्म में कोई कुशल कर्म किया होगा। उसी के फलस्वरूप मेरा जन्म करूणा एवं वात्सल्यमयी भारत माता की गोद में हुआ है। धन्य है यह जगत जननी मां भारती अब सचमुच जान सका कि भारत को क्यों जगदगुरू कहा गया है। हां, मुझमे भारतीय होने का गर्व जागा। पृथ्वी के समस्त प्र‍ाणि‍यों से अपनापन लगता है। यही धर्मकामना है कि समस्त दुखि‍यारों के दु:ख दूर हों। सभी को शुद्ध धर्म की प्राप्ति‍ हो। सब सही मायने में धार्मिक हों। विपश्यना की प्राप्त‍ि से अब जीवन को सार्थक करने का उत्साह, प्रेरणा एवं सही दिशा मिल गयी है। मार्ग बहुत लंबा है किंतु अब धर्म की कृपा से बड़ा सरल और सुगम होता जा रहा है।
   विपश्यना द्वारा दुर्व्यसनों से सहज ही मुक्ति‍ मिल गयी है। विषम परिस्थि‍तियों में भी मुस्कराने का बल मिल गया है। जिम्मेदारियो को निभाने का भी यथेष्ट सामर्थ्य मिला है। हकलाहट में सुधार हो गया है। अब बड़ी से बड़ी सभा को संबोधि‍त करने में समर्थ होता जा रहा हूं। सामान्य बीमारी में दवा और डाक्टर के  पीछे भागने के स्थान पर मैं रोगवि‍शेष की संवेदना को देख कर उसे ठीक कर लेता हूं। सचमुच विपश्यना के बिना जीवन अधूरा ही था ।
    मैं शि‍क्षि‍त मुस्ल‍िम युवाओं से कहना चाहूंगा कि वे विपश्यना को आजमा कर जरूर देखें। आज जरूरत है कि सभी तबके के लोग विपश्यना को अपने जीवन  में ढाल कर घातक सांप्रदायिक अंधेरे को अपने मानस से दूर करें और राष्ट्रीय एकता को सच्ची मजबूती प्रदान करें। मनुष्यमात्र की समस्याओं का समाधान मात्र विपश्यना ध्यान-साधना है क्योंकि इसके रचनात्मक परिमाण तत्काल ही प्राप्त होते हैं।
  पूज्य गुरूजी श्री सत्यनारायण गोयन्का तथा पूज्य विट्ठलदास मोदी को मेरा नतमस्तक प्रणाम।
        नमो बुद्धाय । नमो धम्माय। नमो संघाय।
                                (शि‍वबाड़ी-३३४००१, बीकानेर- राजस्थान)

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