Wednesday, August 11, 2021

स्वभाषाओं का स्वागत लेकिन....?

स्वभाषाओं का स्वागत लेकिन....? डॉ. वेदप्रताप वैदिक यह खुश खबर है कि देश के आठ राज्यों के 14 इंजीनियरिंग कालेजों में अब पढ़ाई का माध्यम उनकी अपनी भाषाएँ होंगी। नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति की पहली वर्षगांठ पर इस क्रांतिकारी कदम का कौन स्वागत नहीं करेगा? अब बी टेक की परीक्षाओं में छात्रगण हिंदी,मराठी, तमिल, तेलुगु, कन्नड़, गुजराती, मलयालम, बांग्ला, असमिया, पंजाबी और उड़िया माध्यम से इंजीनियरी की शिक्षा ले सकेंगे। मातृभाषा के माध्यम का यह शुभ-कार्य यदि 1947 में ही शुरु हो जाता और इसे कानून, गणित, विज्ञान, चिकित्सा आदि सभी पाठ्यक्रमों पर लागू कर दिया जाता तो इन सात दशकों में भारत विश्व की महाशक्ति बन जाता और उसकी संपन्नता यूरोप के बराबर हो जाती। दुनिया का कोई भी शक्तिशाली और संपन्न देश ऐसा नहीं है, जहाँ विदेशी भाषा के माध्यम से पढ़ाई होती हो। हिरन पर घास लादने की मूर्खता सिर्फ भारत-जैसे पूर्व गुलाम देशों में ही होती है। इसके विरुद्ध डॉ. लोहिया ने जो स्वभाषा आंदोलन चलाया था, उसका मूर्त रूप अब देखने में आ रहा है। जब 1965-66 में मैंने इंडियन स्कूलऑफ इंटरनेशनल स्टडीज़ में अपना पीएच.डी. का शोध ग्रंथ हिंदी में लिखने की मांग की थी तो मुझे निकाल बाहर किया गया था। संसद ठप्प हो गई थी लेकिन उसके 50-55 साल बाद अब क्रांतिकारी कदम उठाने का साहस भाजपा सरकार कर रही है। सरकार में दम और दृष्टि हो तो शिक्षा में से अंग्रेजी की अनिवार्य पढ़ाई पर कल से ही प्रतिबंध लगाए और देश के हर बच्चे की पढ़ाई उसकी मातृभाषा में ही हो। अंग्रेजी समेत कई अन्य विदेशी भाषाएं स्वेच्छा से पढ़ने-पढ़ाने की सुविधाएँ विश्वविद्यालय स्तर पर जरुर हों लेकिन यदि शेष सारी पढ़ाई स्वभाषा के माध्यम से होगी तो यह निश्चित जानिए कि नौकरियों में आरक्षण अपने आप अनावश्यक हो जाएगा। गरीबों, ग्रामीणों और पिछड़ों के बच्चे बेहतर सिद्ध होंगे। परीक्षाओं में फेल होनेवालों की संख्या घट जाएगी। कम समय में ज्यादा पढ़ाई होगी। पढ़ाई से मुख मोड़नेवाले छात्रों की संख्या घटेगी। छात्रों की मौलिकता बढ़ेगी। वे नए-नए अनुसंधान जल्दी-जल्दी करेंगे। लेकिन भारत की शिक्षा का स्वभाषाकरण करने के लिए सरकार में अदम्य इच्छा-शक्ति की जरुरत है। रातों-रात दर्जनों पाठ्य-पुस्तकें, संदर्भ-ग्रंथ, शब्द-कोश, प्रशिक्षण शालाएँ आदि तैयार करवाने का जिम्मा शिक्षा मंत्रालय को लेना होगा। स्वभाषा में शिक्षण का यह क्रांतिकारी कार्यक्रम तभी अपनी पूर्णता को प्राप्त करेगा, जब सरकारी नौकरियों से अंग्रेजी की अनिवार्यता समाप्त होगी। क्या किसी नेता या सरकार में दम है, यह कदम उठाने का? यदि आपने संसद में, अदालतों में, सरकारी काम-काज में और नौकरियों में अंग्रेजी को महारानी बनाए रखा तो मातृभाषाओं की हालत नौकरानियों-जैसी ही बनी रहेगी। मातृभाषाओं को आप पढ़ाई का माध्यम जरुर बना देंगे लेकिन उस माध्यम को कौन अपनाना चाहेगा? 3 झिलमिल.jpg हम बात करते हैं भाषा - संस्कृति की लेकिन संस्कृति मंत्रालय भी राजभाषा नीति की धज्जियाँ उड़ाता है। आजादी का अमृत महोत्सव गुलामी की भाषा में मनाता है। न किसी को दिखता-समझता, न कोई समझाता है।

Monday, August 9, 2021

ओलंपिक और विश्वगुरू....

ओलंपिक और विश्वगुरू.... टोक्यो में चल रहे ओलंपिक खेलों की मेडल टैली में कल शामतक भारत अंडर 50 में भी नहीं था! फिर सूबेदार नीरज चोपड़ा ने पूरे दम के साथ भाला फेंका और हम 67वें पोजिशन से 20 अंकों की उछाल लेकर सीधे 47वें पोजिशन पर आ गए! एक गोल्ड मैडल और 20 अंकों की उछाल!!! 138 करोड़ की आबादी वाला देश कल से सीना फुलाए घूम रहा है! क्रेडिट लेने देने की होड़ सी मची हुई है! हर किसी में सूबेदार साहब से जुड़ने की ललक दिखाई पड़ रही है! क्योंकि उन्होंने गोल्ड दिलाया है! 138 करोड़ की आबादी में मात्र एक स्वर्ण पदक!! क्या ये गर्व का विषय है? पदक तालिका पर नजर डालेंगें तो आप पाएंगे कि हम कुल 7 ओलंपिक पदकों (स्वर्ण, रजत और कांस्य) के साथ 47वें स्थान पर हैं! ....और जो देश प्रथम (चीन-38 स्वर्ण पदक) द्वितीय (USA-36 स्वर्ण पदक व तृतीय स्थान (जापान-27 स्वर्ण पदक) पर हैं उनके सिर्फ स्वर्ण पदकों की संख्या हमारे कुल पदकों की संख्या से लगभग 4 गुनी या 5 गुनी है! शीर्ष पर बढ़त बनाये हुए इन देशों के साथ ऐसा नहीं है कि वे सिर्फ खेलों में ही अच्छा कर कर रहे हैं और बाकी क्षेत्रों में फिसड्डी हैं! इनकी विकास दर, औद्यिगिक तकनीक, रेलवे, हाईवे, सैन्यशक्ति ....यहाँ तक कि शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाएं- कुछ भी उठा लीजिये! ये देश इन क्षेत्रों में भी हमसे कई गुना बेहतर प्रदर्शन कर रहे हैं! दुनिया के सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालय इन्ही के पास हैं! पूरी दुनिया को बेहतर फाइटर जेट, पनडुब्बी और हवाई जहाज से मेट्रोरेल तकनीक, कंप्यूटर तकनीक और स्पेस तकनीक यही लोग मुहैया करा रहे हैं! ...और खेलों में भी इनका कोई सानी नहीं है! इसी को सर्वांगीण विकास कहते हैं! हम तो इनके पासंग में भी नहीं हैं! सिर्फ जनसंख्या के मामले में बढ़त बनाये हुए हैं हम! इतने बड़े फेल्योर का जिम्मेदार किसी एक को नहीं ठहराया जा सकता! हम सब इस हमाम में नँगे हैं! हमने कभी इन मुद्दों पर बात ही नहीं की! हम नाली, खड़ंजा, PCC रोड, वृद्धावस्था पेंशन, बेरोजगारी भत्ता, आधार, पैन, जनधन, जातिप्रमाण पत्र, आय प्रमाणपत्र, मिड डे मील में मिलने वाला अंडा, आंगनवाड़ी, भोज, भण्डारा, बोलबम, दरगाह, हिन्दू, मुसलमान, भगवा, हरा- इन्ही सब में उलझकर रह गए! जिसका नतीजा है कि हमारी आजादी के महज दो साल पहले दो-दो परमाणु हमले झेल चुका देश आज न सिर्फ ओलंपिक की मेजबानी कर बल्कि अपनी सरजमीं पर पदक भी जीत रहा है! ...और आजादी के 74 साल बाद हमारे देश की 80 करोड़ जनता 5 किलो गेंहू के लिए लाइनों में खड़ी है! ...और ख़ुशी ख़ुशी खड़ी है! क्योंकि हमने न खेलों को सिरियसली लिया और न ही पढाई लिखाई और तकनीक को! जिन्होंने सिरियसली लिया वे आज हर जगह अच्छा कर रहे हैं! इस ओलंपिक समापन के बाद हमारे खिलाडी वापस आएंगे! हर राज्य अपनी (बेशर्मी की) क्षमता के मुताबिक उनको पुरस्कृत करेगा! माननीय लोग उनके साथ फोटो खिंचवायेंगे! कुछ मनगढ़ंत कहानियां रची जाएँगी! बैनर पोस्टर बनेगा....और कुछ दिनों बाद हम सब फिर से उसी हिन्दू मुसलमान, गौरी गणेश, मुल्ला मौलवी में उलझ जायेंगे! लेकिन याद रखिए! खिलाड़ियों के प्रदर्शन के बदले में माननीयों द्वारा बांटे जाने वाले कैश, फ्लैट और नौकरी तथा देशवासियों द्वारा फील किया गया गर्व- ये सब दरअसल अपनी अपनी नाकामी छिपाने के तरीके हैं! इससे ज्यादा कुछ नहीं है! ...और जब तक ऐसा चलता रहेगा, विश्वगुरु सिर्फ ओलंपिक ही नहीं, हर प्रतिस्पर्धा में मेडल के लिए तरसते रहेंगे! (ये माइकल हमारे यहाँ होता तो हमारे माननीय अबतक इसको राष्ट्रपति बना दिए होते)