Saturday, July 4, 2015

एक कैथोलिक पादरी के विपश्यना-संबंधी उद्गार -फादर पीटर लॅाड्रर्स


  मैं इगतपुरी के विपश्यना विश्व वि़द्यापीठ में श्री सत्यनारायण गोयन्का द्वारा संचालित विपश्यना के दस-दिवसीय शि‍विर में फरवरी १९८६ में सम्म‍िलित हुआ था। इगतपुरी मुंबई से रेल द्वारा लगभग तीन घंटे की दूरी पर है।
 मेरे साथ चार कैथोलिक पादरियों] दो बंधुओं (brothers) तथा अटठा्ईस भगिनियों (sisters) का एक समूह था। मेरे स्टाफ का एक पादरी और दो सिस्टर्स भी मेरे साथ थीं। मैं प्रशि‍क्षकों(चर्च कार्मिक, जो कि भावी व्रदर्स एवं सिस्टर्स और पादरियों के प्रशि‍क्षण प्रभारी होते हैं) के लिए छमाही पाठ्यक्रम का आयोजन एवं संचालन करता हूं। एक आध्या‍त्म‍िक इकाई के लिए यह आवश्यक है कि उसे विश्व की अन्य प्रचलित आध्यात्म‍िकताओं का अनुभाव प्राप्त हो। हम सभी यह अनुभव प्राप्त कर र‍हे थे।
      मैं एक धार्मिक पादरी हूं। मैंने रोम से मनोविज्ञान में उपाधि और शि‍कागो के लोयोला विश्ववि़द्यालय में पी.एच.डी. किया है। मेरे शोध का विषय था- (The Implicatons of  the T.M.Programme for Counselling Psychology)। लोयोला में तुलनात्मक रहस्यवाद के एक पाठ्यक्रम में मुझे कक्षा में भावातीत ध्यान की प्रस्तुति के लिए कहा गया था। मनो‍चि‍कित्सा, तुलनात्मक रहस्यवाद, भावातीत ध्यान और मेरे धार्मिक निजी जीवन की मेरी पृष्ठभूमि, विपश्यना अंतर्राष्ट्रीय अकादमी में शि‍विर के दौरान महत्वपूर्ण पूंजी सिद्ध हुई। मुझे लगा कि मैं उन चीजों का स्पर्श कर रहा हूं जिनकी मैं वर्षो से प्रतीक्षा कर रहा था। मैं पूर्ण लौटने पर अपने धार्मिक समूह, जिनका मैं निदेशक था, के साथ विपश्यना करने लगा।
    इगतपुरी में मैं लॅारी रॅास से मिला जिनकी विपश्यना के प्रति लगन ने मुझे बहुत प्रभावित किया। ध्यानकक्ष में उनका घंटो एक ही आसन पर बैठे रहना मुझे प्रभावित कर गया। मैं उतनी देर नहीं बैठ पाता था। उन्होने मुझे बताया कि यह उनका १३ वां शि‍विर है।
      जो लोग जानते हैं कि मैं एक पादरी हूं, प्राय: आश्चर्य प्रकट करते हैं कि एक कैथोलिक पादरी का बौद्ध केंद्र में क्या काम? ड्यूक विश्वविद्यालय के रोजर कॅार्लेस बताते हैं कि सामान्य कैथोलिक समूह-प्रार्थी (mass-goer) की अपेक्षा डी.टी. सुजुकी (जेन बुद्धि‍स्ट) का साथ उन्हें अधि‍क सुसंगत लगता था। मैं मर्टन नहीं हूं, परंतु मुझे भी इगतपुरी में वैसा ही लगा और प्राय: अपने धर्मक्षेत्र में भी वैसा ही अनुभव करता था। आध्यात्मि‍कता के लिए मैं जीवनभर लालायित रहा। मैंने पीटर की खोल (Bark of Peter) से बाहर-बाहर के पानी में उस‍की तलाश करने का साहस किया है।
    मेरी कैथोलिक संबद्धता के साथ यह कैसे ठीक बैठता है? मैं सोचता हूं, मेरी कैथोलिक परंपरा की रहस्यात्मक आध्यात्म‍िकता की लक्ष्य-प्राप्त‍ि का एक मार्ग विपश्यना है।
 मेरी कैथोलिक परंपरा का एक ईश्वरपरक पक्ष भी है। यह वही पक्ष है जो प्राय: परंपरागत प्रश्नोत्तरी, चर्च-गमन, पारिवारिक भरण-पोषण, उपदेश आदि से संप्रे‍षि‍त होता है। विपश्यना तकनीक का सिद्धांत मेरे कैथोलिक सांसारिक परिदृश्य में ठीक नहीं बैठता, परंतु मैं इसे अति महत्वपूर्ण नहीं मानता । मेरा उसे महत्वपूर्ण नहीं मानने का कारण यह है कि मैं क्रिस्तीन (ईसाई) धर्म विज्ञान को अनुभवातीत अनुभव की चर्चा और व्याख्या का एक तरीका मानता हूं। मेरा यह मानना है कि किसी चीज की व्याख्या करने से अच्छा उसका अनुभव करना हैं। अनुभव में मै हिंदू, मुस्लि‍म और बौद्ध परंपराओं से अपनी क्रिस्तीन (ईसाई) परंपरा की रहस्यवादिता को धर्मविज्ञानियों और समूह-प्रार्थियों की अपेक्षा अधिक निकट मानता हूं।
 मैं अनुभव करता हूं कि मेरी क्रिस्तीन पंरपरा में “ईश्वरपरक आध्यात्मि‍कता” रहस्यवादिता की अपेक्षा अधि‍क प्रभावी थी। मुझे लगता है कि गोयन्काजी द्वारा विहित आध्यात्मि‍कता में रहस्यवदिता ही सब कुछ है। वास्तव में यह सत्य की ओर बड़ी गर्मजोशी से पहॅुचती है और उससे पहले कहीं रूकती भी नहीं।
  क्या क्रिस्तीन परंपरा में वैसी ही गर्मजोशी का प्रभाव नहीं है? मेरा विश्वास है कि अवश्य है, परंतु विपश्यना की तरह सरल और स्पष्ट विधि का अभाव-सा लगता है। जो कुछ विधि‍यां थीं, वे मठों के साथ समाप्त हो गयी।
    अपनी आध्यात्म‍िक यात्रा में मैं धर्मग्रंथों व स्कूलों में बताये गये ईश्वर की अपेक्षा अपनी मानवता के अकथनीय ईश्वर की खोज में हूं।
  यद्यपि मैं मसीहा होना नहीं चाहता, मुझे प्राय: दु:ख होता है कि मैं अपने क्रिस्तीन साथि‍यों को आम आध्यात्म‍िक वातावरण से परे जाने के लिए प्रेरित नहीं कर पाता हूं।
  अपने धार्मिक समूहों में, अपनी पद-प्रतिष्ठा के अनुरूप या उनसे बाहर एक अलग शंखनाद सुनने और उसके अनुरूप चलने के प्रयास हेतु, मेरे और समस्त मानव जाति में शामिल होने का आप सबको आमंत्रण देता हूं।
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 सभी बुद्धों की मात्र यही तीन शि‍क्षाएं है :-
(१) शील- सभी बुरे कामों से बचो ।
(२) समाधि- संयामित मन से सभी शुभ कार्यो को करो।
(३) प्रज्ञा- अंर्तदर्शन द्वारा मन को जड़ों तक विशुद्ध करो।
संसार में सभी धर्मो के यही सर्व-सामान्य तथ्य हैं। इनमें से कोई भी इन तथ्यों को नकार नहीं सकता। ये तीनों जब मिलते हैं तभी शुद्ध ‘धर्म’ बनता है। ये ही समस्त सृष्ट‍ि में व्याप्त हैं। ये किसी एक संगठित धर्म तक सीमित नहीं है। इनका अभ्यास कोई भी बिना किसी संदेह, कठिनाई अथवा हिचक के कर सकता है और समान परिमाण- शांति तथा समरसता- को प्राप्त कर सकता है।
-    सयाजी स० ना० गोयन्का
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